श्रीमद भगवद गीता : ०३

पुरातन, प्रमाणिकता सिद्ध होने से यह योग उतम सिद्धांत है।

 

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।।४-३।।

 

वही यह पुरातन योग जो एक उत्तम रहस्य है, आज मैंने तुम्हें कहा है, क्योंकि तुम मेरे भक्त और मित्र हो। ||४-३||

 

भावार्थ:

योग की परिक्रिया का जो ज्ञान है वह योग विज्ञान है। अध्याय दूसरे और तीसरे में भगवान श्रीकृष्ण ने जो योग विज्ञान का वर्णन किया है, वह पूर्ण, पुरातन एवं अति उत्तम रहस्य है जो मनुष्य का कल्याण करने वाला है। पुरातन पद को कहने का अर्थ यह है कि इस उपाय की प्रमाणिकता सिद्ध है। पूर्ण पद का अर्थ है की इस योग विज्ञानं को जान कर और कुछ जानने को नहीं है।

‘उत्तम रहस्य’ पद से भगवान् अर्जुन से मानो यह कहते हैं कि जो उपदेश सृष्टि के आदि में सूर्य को प्राप्त हुआ था और जो लुप्त सा हो गया है। और जिसका ज्ञान केवल मुझे प्राप्त है, वह ज्ञान, आज इतने वर्षों बाद में तुम्हारे सामने प्रकट कर रहा हूँ। विषय लुप्त होने पर वह रहस्य ही बन जाता है।

यहा ‘रहस्यम्’ पद का अर्थ यह नहीं है कि यह हर किसी के जानने का विषय नहीं है। इस का अर्थ है कि यह हर कोई समझ नहीं पाता। परन्तु क्युकि तुम मेरे भक्त और प्रिय सखा हो इसलिये मैं तुम को पूर्ण रूप से इस का वर्णन करुगा। जिन संसारिक कार्यों को करने से मनुष्य सुख-दुःख में बँधता है, उन्हीं कार्यों को योग के दुवारा करने से उसकी मुक्ति हो जाय तो यह उत्तम रहस्य ही है।

अध्याय २ श्लोक ७ में अर्जुन ने कहा था कि मैं आप के शरण में आया हूँ और मेरा कल्याण जिस मे हो, उसको आप मुझे कहिये। क्योंकि अर्जुन उनका भक्त और प्रिय सखा भी है, इसलिये भगवान श्रीकृष्ण उसके कल्याण के लिये जो अति उत्तम ज्ञान है वह उसको देते है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

मनुष्य जब परमात्मतत्व (भगवान) के प्रति पुर्ण श्रद्धा-आस्था रखता है कि, भगवान हर प्रकार से मेरे जीवन का कल्याण करने वाले है, तो उस मनुष्य की भगवान के प्रति भक्ति कही जाती है। यहाँ जीवन कल्याण का अर्थ कामना पूर्ति या सुख-दुःख निवारण नहीं है, अपितु परमानन्द कि प्राप्ति है।

भक्ति करने से मनुष्य की स्वयं के प्रति अहंता, ममता का त्याग होता है और सुख-दुःख में समता कि प्राप्ति होती है।

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