श्रीमद भगवद गीता : ०८

पाप का नाश, धर्म स्थापना हेतु परमात्मा का जन्म होता है।

 

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ।।४-८।।

 

साधुओं की रक्षा करनेके लिये, पापकर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी भलीभाँति स्थापना करनेके लिये युग-युग से मेरा (परमात्मा) मनुष्य जन्म हुआ है और होता रहेगा। ||४-८||

भावार्थ:

जो साधक धर्म का पूर्णतय पालन करते है; धर्म पालन ही जिनके जीवन का उदेश्य है, ऐसे साधकों के लिये यहाँ ‘साधूनाम्’ पद आया है।

‘दुष्कृताम्’ पद उन मनुष्यों के लिये आया है जो, कामना के अत्यधिक बढ़ने के कारण झूठ, कपट, छल, बेईमानी आदि दुर्गुण-दुराचारों में लगे हुए हैं, जो निरपराध, सद्गुण, सदाचारी, साधुओं पर अत्याचार और अहित किया करते हैं, जो प्रवृत्ति और निवृत्तिको नहीं जानते, भगवान् और वेद-शास्त्रोंका विरोध करना ही जिनका स्वभाव हो गया है।

भगवान का जो मनुष्य रूप में जन्म होता है, उस जन्म में भगवान द्वारा धर्म पूर्ण आचरण करने से धर्म की स्थापना होती है।

धर्म की पुनः स्थापना के लिये इस प्रकार अनन्त समय से अनेक जन्म होते रहे है।

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