श्रीमद भगवद गीता : १५

लोकसंग्रह के लिए पूर्वजों का अनुसरण करते हुए कर्तव्यों को करो।

 

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।

कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ।।४-१५।।

 

पूर्वकाल के मुमुक्षुओं ने योग को जानकर ही कर्म किये हैं, इसलिये तुम भी लोकसंग्रह के लिये पूर्वजों के द्वारा सदासे किये जानेवाले कर्तव्यों को उन्हीं की तरह करो।||४-१५||

भावार्थ:

अध्याय ३ श्लोक २० मे भगवान श्रीकृष्ण, राजा जनक और अन्य राजाओं  का उदहारण देते हुए योग में स्थित हो कर धर्म का पालन लिये कहते है।

अध्याय ३ श्लोक २२ मे भगवान श्रीकृष्ण, स्वयं का उदहारण देते हैं कि वे स्वयं भी कर्तव्यों को तत्परता से करते हैं। अध्याय ४ श्लोक १३ एवं अध्याय ४ श्लोक १४ मे, भी भगवान श्रीकृष्ण, स्वयं का उदहारण देकर बताते हैं कि मनुष्य को योग सिद्धि के लिये कार्य करने में भाव किस प्रकार का होना चाहिये।

अब इस श्लोक मे अन्य मुमुक्षु का उदहारण देकर अर्जुन को कहते है कि जिस प्रकार सिद्ध पुरुष जिन-जिन कार्यों को जिस प्रकार (भाव से) करते हैं, उसी प्रकार तुम स्वयं भी करो।

जिस साधक के अन्तःकरण में  कल्याण की तीव्र इच्छा जागृत हो जाती है, उसके लिये मुमुक्षु पद आया है।

श्लोक का परिपेक्ष्य:

शास्त्रोंमें ऐसी मान्यता है कि मुमुक्षा जाग्रत् होने पर मनुष्य कर्मका अधिकारी नहीं होता; प्रत्युत ज्ञानका अधिकारी हो जाता है। परन्तु इस श्लोक से स्पष्ट होता हैं कि मुमुक्षुओंने भी योग का तत्त्व जानकर कर्म किये हैं। इसलिये मुमुक्षा जाग्रत् होनेपर भी अपने कर्तव्य-कर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करते रहना चाहिये।

भाव यह होना चाहिये कि कार्यों का कर्ता ‘मैं’ (अहंता) स्वयं नहीं हूँ। कार्यों का कर्ता मनुष्य की प्रकृति-गुण है। यह ही योग का तत्व है।

योग का तत्त्व है, कार्य करते हुए योग में स्थित रहना और योग में स्थित रहते हुए कार्यों को करना।

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