श्रीमद भगवद गीता : १६

कर्म तत्व को जान कर मनुष्य शुभ-अशुभ कर्मों से मुक्त हो जाता है

 किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।।४-१६।।

 

कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इस विषय में बुद्धिमान मनुष्य भी भ्रमित हो जाते हैं। अतः मैं तुम्हें कर्म-तत्त्व भलीभाँति कहूँगा, जिसको जानकर तुम अशुभ कर्म से मोक्ष को प्राप्त हो जाओगे। ||४-१६||

भावार्थ:

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म (कार्य) के दो भेद बताये हैं – कर्म और अकर्म। कर्म से जीव बँधता है और अकर्म से (दूसरों के लिये कर्म करने से) मुक्त हो जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि वास्तविकता में कर्म क्या है. वह क्यों बाँधता है, कैसे बाँधता है, इससे किस तरह मुक्त हो सकते हैं, इन सबका विवेचन मैं करूँगा, जिसको जानकर उस रीति से कर्म करने पर तुम कर्म बंधन से नहीं बंधोगे।

कर्म को करने अथवा न करने, – दोनों ही अवस्थाओं में मनुष्य बंधता है। कर्म और अकर्म के तत्व को समझने से और उस प्रकार कार्य करने से ही मनुष्य कर्म बन्धन से मुक्त हो सकता है।

अर्जुन युद्धरूप कर्म न करने को कल्याण कारक समझते हैं। इसलिये भगवान् मानो यह कहते हैं कि युद्धरूप कर्मका त्याग करने मात्र से तेरी अकर्म अवस्था (बन्धन से मुक्ति) नहीं होगी (अध्याय ३ श्लोक ४) प्रत्युत युद्ध करते हुए भी तू अकर्म अवस्था को प्राप्त कर सकता है (अध्याय २ श्लोक ३८) अतः अकर्म क्या है इस तत्त्वको तू समझ। निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना अथवा कर्म करते हुए निर्लिप्त रहना यही वास्तवमें अकर्म अवस्था है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

अध्याय २ श्लोक ५० में भगवान श्रीकृष्ण ने ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ से कहा है कि योग में स्थित हो कर समाज के कल्याण के लिये किये गये कार्य ही उत्तम प्रकार से किये गये कार्य है। अर्थात योग साधना के साथ किये गये कार्य मनुष्य को नहीं बांधते। परन्तु अर्जुन इस तत्त्व को पकड़ नहीं सके इसलिये भगवान् इस तत्त्व को पुनः समझाने की प्रतिज्ञा कर रहे हैं।

भगवान् कहते हैं कि मैं उस कर्म-तत्त्व का वर्णन पुनः करूँगा, जिसको जानकर कर्म करने से तुम अशुभ कर्म से मुक्त हो जाओगे।

भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म (जो बांधने वाले है) को अशुभ कहा है। कारण कि इस प्रकार के कर्म मनुष्य के कल्याण में बाधा है। और इस बाधा से मुक्ति को मोक्ष कहा है।

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