श्रीमद भगवद गीता : १८

जो मनुष्य अहंता रहित होकर कर्म करता है वह योगी है।

 

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।

स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ।। ४-१८।।

 

जो मनुष्य कर्ममें अकर्म देखता है और जो अकर्ममें कर्म देखता है, वह मनुष्योंमें योगी है और सम्पूर्ण कर्मोंको करनेवाला है। ||४-१८||

भावार्थ:

अकर्म में कर्म देखना

मनुष्य प्राय मानसिक क्रिया को अपने द्वारा होने वाली क्रिया नहीं मानता। किसी कारण वश कोई शारीरिक क्रिया को न करना भी वह क्रिया नहीं मानता। इनके अतिरिक्त खाना-पीना, सोना, बैठना, चलना, चिंतन, समाधि आदि क्रियाओं को मेरे द्वारा होने वाली क्रिया नहीं मानता। अतः अज्ञानता वश वह इन कर्मों को अकर्म मान लेता है।

अत: इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण, उन मनुष्य को बुद्धिमान की संज्ञाः देते है जो मानसिक क्रिया को अथवा शरीर से सम्बन्ध मान कर राग-द्वेष, आसक्ति, या आलस्य वश, कार्य का त्याग भी कर्म रूप है। वाचिक क्रिया भी वह कर्म रूप देखता है।

कर्म में अकर्म देखना

बुद्धिमान मनुष्य समस्त शारीरिक एवम मानसिक क्रियाओं के साथ अपना सम्बन्ध न मानते हुए सभी कार्यों को प्रकृति के गुणु द्वारा और भगवत कृपा से मानता है और कार्य में निर्लिप्त रहता है वह शरीर और मानसिक कार्य करता हुआ भी नहीं करता। उसके अभी कार्य समाज कल्याण के लिये होते है

ऐसे बुद्धिमान मनुष्य को भगवान श्री कृष्ण ने योगी कहा है जो सम्पूर्ण कार्यों को करता हुआ भी करता भाव नहीं रखता। ऐसा योगी समता को निश्चित प्राप्त कर लेता है। योग सिद्ध हो जाता है।

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