इस और बीसवें श्लोकमें कर्मयोग में सिद्ध महापुरुष की कर्मों से निर्लिप्ता का वर्णन है।
भावार्थ:
संकल्प: बुद्धि का किसी भाव या कार्य को लेकर एक निश्चय बुद्धि होना संकल्प है।
कामना पूर्ति के लिये निश्चय बुद्धि होना कामना पूर्ति के लिये संकल्प लेना है। इस संकल्प को लेकर कार्य का आरम्भ करना, कर्म है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि, सम्पूर्ण कार्यों के आरम्भ कामना पूर्ति के संकल्प से रहित होने चाहिये। अर्थात कोई भी कार्य कामना पूर्ति से प्रेरित हो कर नहीं होने चाहिये। अतः कामना से रहित कार्य या तो शरीर निर्वाह के लिये होंगे या प्रकृति-समाज की सेवा (कर्तव्य-कर्म) के लिये होंगे।
संकल्प के विषय में यह जानना जरूरी है की, किसी भी कार्य को करने के लिये अनेक प्रकार की पद्धत्ति हो सकती है। उन अनेक पद्धत्ति-विकल्पों में से कोई एक सही प्रकार की पद्धत्ति फल देने वाली होती है। मनुष्य जब समाज कल्याण के लिये कार्य करता और सही कार्य पद्धत्ति का चयन करके, उस पद्धत्ति के अनुसार कार्य करने का संकल्प लेता है, तब वह संकल्प निषेध नहीं है।
सही कार्य पद्धत्ति का चयन करने पर फल की प्राप्ति हो ही ऐसी इच्छा नहीं होने चाहिये। कर्तव्य-कर्म करते हुए, सही पद्धत्ति का संकल्प तो करना है पर फल प्राप्ति की इच्छा नहीं करनी।
“जिसके सम्पूर्ण कर्म ज्ञानरूपी अग्निसे जल गये हैं” – आगे के श्लोक में कर्म फल का हेतु न बनने को भगवान ने अलग तरह से कहा है।
समस्त कार्य प्रकृति में और प्रकृति के द्वारा ही हो रहे है और मनुष्य (चेतनतत्त्व) का इनसे कोई सम्बन्ध नहीं है – इस तत्व को ठीक-ठीक जानना ही ‘ज्ञान’ एवं विवेक जागृत होना है।
जो मनुष्य इस ज्ञान के होने पर कार्यों को भगवान के अर्पण करता है और उनसे अपना कोई सम्बन्ध (कि यह कार्य मेने किया है) नहीं मानता, तो उसके सम्पूर्ण कर्म (कार्य से सम्बन्ध ही कर्म है) ज्ञानरूपीअग्नि में जल जाते है। अथार्त वह कार्य बांधने वाले नहीं होते।
ऐसे मनुष्य को पण्डित कहते हैं। अर्थात वह मनुष्य जिसका विवेक जागृत हो गया है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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