श्रीमद भगवद गीता : २४

सृष्टि के समान शरीर की सभी क्रिया भी यज्ञ है और यज्ञ में सभी पात्र ब्रह्मरूप है।

 

 ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।

ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ।।४.२४।।

 

जिस यज्ञ में अर्पण भी ब्रह्म है, हवी भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्ताके द्वारा ब्रह्मरूप अग्निमें आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म है। जिस मनुष्य (यज्ञको करने वाला) की ब्रह्ममें ही कर्म-समाधि हो गयी है, उसके कार्य द्वारा प्राप्त फल भी ब्रह्म ही है। ||४-२४||

भावार्थ:

अध्याय ३ श्लोक १४ में भगवान श्रीकृष्ण ने सृष्टि चक्र रूपी यज्ञ में ब्रह्म ही नित्य प्रतिष्ठित है, ऐसा कहा।

अब इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि जिस प्रकार सृष्टि गतिशील है, उसी प्रकार मनुष्य शरीर में भी नित्य क्रिया होती रहती है। इस क्रियाशील मनुष्य शरीर में जो सामग्री (भोजन) अर्पण किया जाता है, वह ब्रह्म है। जिससे सामग्री दी जाती है (हाथ) वह ब्रह्म है।

जिसमें (मुख-जठ) दिया जाता है, वह ब्रह्म है। भोजन ग्रहण रूपी क्रिया भी ब्रह्म है। जिस अग्नि में भोजन पचता (जठराग्नि) भी ब्रह्म है। भोजन से जो बनता (शरीर) है, वह भी ब्रह्म है। अतः जिस योगी का इस यज्ञ रूपी ब्रह्म में कर्म (कामना-एवं कर्ता भाव) की समाधि (सन्यास) हो गई है, उसको इस यज्ञ से जो फल (समता) प्राप्त होता है, वह भी ब्रह्म है।

उसी प्रकार संसारिक कार्यों में, जिस के दुवारा (शरीर) कार्य किया जाता है, वह ब्रह्म है। जिन को लेकर (संसारिक पदार्थ) कार्य किया जाता है, वह भी ब्रह्म है। कार्य के होने में जो कारण (चेतन तत्व) है, वह भी ब्रह्म है। कार्य से जो फल (पदार्थ-परिस्थिति) प्राप्त है वह भी ब्रह्म है। इस ब्रह्म रूपी यज्ञ में से मनुष्य (अन्तःकरण) को जो (समता) प्राप्त है, वह भी ब्रह्म है।

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