श्रीमद भगवद गीता : २६

संयमरूप यज्ञ और विषय-हवनरूप यज्ञ।

 

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।

शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ।।४.२६।।

 

अन्य योगीजन श्रोत्रादिक समस्त इन्द्रियोंका संयमरूप अग्नियोंमें यज्ञ किया करते हैं और अन्य योगीजन शब्दादिक विषयोंका इन्द्रियरूप अग्नियोंमें यज्ञ किया करते हैं। ||४-२६||

भावार्थ:

संयमरूप यज्ञ:  एकान्तकाल में अपनी इन्द्रियों को विषयों में प्रवृत न होने देना। पूरा संयम तभी समझना चाहिये, जब इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि तथा अहम – इन सबसे से राग-आसक्ति का सर्वथा अभाव हो जाय।

विषय-हवनरूप यज्ञ: व्यवहार कालमें इन्द्रियों का विषयों से संयोग होने पर भी उनमें राग-दुवश पैदा न होने देना।

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