भावार्थ:
ज्ञानयज्ञ की श्रेष्ठा में अग्नि रूपी दृष्टान्त देते हुए कहते है कि जैसे प्रज्वलित अग्नि काष्ठादि ईंधनों को पूर्णतया भस्म कर देती है, कि उनका किंचिन्मात्र भी अंश शेष नहीं रहता। उसी प्रकार मनुष्य की अहंता को सर्वथा भस्म कर देती है।
अहंता (“मैं कार्य को करता हूँ”) का सम्पूर्ण रूप से त्याग होने पर मनुष्य के सभी कार्य बांधने वाले नहीं रहते। मनुष्य के सभी कार्य अकर्म हो जाते हैं। अकर्म भाव से किये गये कार्य न तो मनुष्य को सुख-दुःख होता है और न ही उसका पाप-पुण्य लगता है। वह निर्विकार, निर्मल रहता है।
श्लोक का परिपेक्ष्य:
पुनः अकर्म से यह अर्थ नहीं लेना चाहिये कि साधक को कोई कार्य शेष नहीं है। ज्ञानयोग में स्थित हुआ योगी को संसारिक कार्य तो फिर करने ही है।
अन्तःकरण में अहंता का भाव न होना अकर्म है। शरीर से क्रिया न होना अथवा न करना अकर्म नहीं है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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