श्रीमद भगवद गीता : ०१

परमात्मा में असक्त और आश्रित होकर योगका अभ्यास करने से अनुभूति किस प्रकार की होती है?

 

श्री भगवानुवाच

मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः।

असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ।।७-१।।

 

श्रीभगवान् ने कहा: हे पार्थ! मुझमें असक्त हुए मन वाले तथा मेरे आश्रित होकर योगका अभ्यास करते हुए जिस प्रकार तुम मेरे समग्ररूपको निःसन्देह जैसा जानोगें, उसको सुनों। ।।७-१।।

भावार्थ:

अध्याय ६ श्लोक ३० में भगवान श्री कृष्ण ने वर्णन किया है कि जो साधक परमात्मतत्व को स्वयं में और प्रकृति के समस्त प्राणियों में देखता है उसके लिये परमात्मतत्व अदृश्य नहीं होता। परमात्मतत्व ही सब जगह परिपूर्ण है, यह भाव ही मन की एकाग्रता है। अध्याय ६ श्लोक ३३ में जब अर्जुन मन की चंचलता के कारण मन की स्थिरता का होना कठिन है ऐसा कहते है तब अध्याय ६ श्लोक ३६ में भगवान श्री कृष्ण उपायपूर्वक प्रयत्न करने से मन को संयमित किया जा सकता है ऐसा कहते है।

अतः इस श्लोक से भगवान श्री कृष्ण विज्ञानं रूपी ज्ञान प्रस्तुत करते है जिसको जानने के बाद मन को संयमित करना सरल हो जाता है।

अर्जुन के समान सभी जिज्ञासुओं के मन में आता है कि चंचल मन के द्वारा परमात्मतत्व का संशयरहित समग्ररूप से साक्षात्कार किस प्रकार किया जा सकता है?

परमात्मतत्व का साक्षात्कार करने के लिये साधक का ‘मय्यासक्तमनाः’ एवं ‘मदाश्रयः’ होना अनिवार्य है।

परमात्मतत्व में ही जिसका मन आसक्त हो गया है अर्थात् जिसका उत्पत्ति-विनाशशील प्राकृतिक पदार्थों के प्रति आकर्षण, प्रियता, आसक्ति मिट गयी गया है, ऐसे साधक का नाम ‘मय्यासक्तमनाः’ है।

जिस साधक का आश्रय प्राकृतिक पदार्थों और स्वयं के शरीर पर से समाप्त हो गया है अर्थात् जो केवल परमात्मतत्व ही आश्रित रहता है, वह ‘मदाश्रयः’ है।

भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को वचन देते है कि योग आरूढ़ साधक किस प्रकार परमात्मतत्व को जानेगा, वह तुमसे कहता हूँ।

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