भावार्थ:
पूर्व श्लोक (अध्याय ७ श्लोक ४) में अपरा प्रकृति को आठ मूल भूत (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार) से विभक्त किया गया है। परन्तु इन सभी आठ प्रकार के भूतों का जो मूल तत्व है, जिस के कारण इनका आस्तित्व है, वह परमात्मतत्व है। इस परमात्मतत्व को इस श्लोक में ‘परा’ प्रकृति नाम से कहा गया है।
प्राणी की चेतना का कारण मन, बुद्धि और अहंकार है। परन्तु इस चेतना का प्रकाशक भी परमात्मतत्व है। संसार और प्राणी में हो रही क्रिया का जो ऊर्जा स्रोत है, उस स्रोत का कारण भी परमात्मतत्व है।
आँखे देखती तो है और देखने का अनुभव भी होता है परन्तु आँखों के देखने में जो ऊर्जा स्रोत है, जो शक्ति है, सत्ता-स्फूर्ति है, उसका कारण अहंकार नहीं है अपितु परमात्मतत्व है। प्रकृति में हो रही क्रिया, शरीर में हो रही क्रिया जैसे पाचन क्रिया, श्वास क्रिया, रक्त क्रिया यह सब स्वतः होती है और इन सब का कारण परमात्मतत्व है जिसको ‘परा प्रकृति’ कहते है।
अपरा प्रकृति निकृष्ट, जड और परिवर्तनशील है तथा परा प्रकृति श्रेष्ठ, चेतन और अपरिवर्तनशील है। दृश्यमान जगत का प्रकाशक, कारण परमात्मतत्व है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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