श्रीमद भगवद गीता : ०५

दृश्यमान जगत का प्रकाशक, कारण परमात्मतत्व (परा प्रकृति) है।

 

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।

जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।७-५।।

 

हे महाबाहो! इस ‘अपरा’ प्रकृतिसे भिन्न जीवरूपा बनी हुई मेरी ‘परा’ प्रकृति को जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है। ।।७-५।।

भावार्थ:

पूर्व श्लोक (अध्याय ७ श्लोक ४) में अपरा प्रकृति को आठ मूल भूत (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार) से विभक्त किया गया है। परन्तु इन सभी आठ प्रकार के भूतों का जो मूल तत्व है, जिस के कारण इनका आस्तित्व है, वह परमात्मतत्व है। इस परमात्मतत्व को इस श्लोक में ‘परा’ प्रकृति नाम से कहा गया है।

प्राणी की चेतना का कारण मन, बुद्धि और अहंकार है। परन्तु इस चेतना का प्रकाशक भी परमात्मतत्व है। संसार और प्राणी में हो रही क्रिया का जो ऊर्जा स्रोत है, उस स्रोत का कारण भी परमात्मतत्व है।

आँखे देखती तो है और देखने का अनुभव भी होता है परन्तु आँखों के देखने में जो ऊर्जा स्रोत है, जो शक्ति है, सत्ता-स्फूर्ति है, उसका कारण अहंकार नहीं है अपितु परमात्मतत्व है। प्रकृति में हो रही क्रिया, शरीर में हो रही क्रिया जैसे पाचन क्रिया, श्वास क्रिया, रक्त क्रिया यह सब स्वतः होती है और इन सब का कारण परमात्मतत्व है जिसको ‘परा प्रकृति’ कहते है।

अपरा प्रकृति निकृष्ट, जड और परिवर्तनशील है तथा परा प्रकृति श्रेष्ठ, चेतन और अपरिवर्तनशील है। दृश्यमान जगत का प्रकाशक, कारण परमात्मतत्व है।

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