श्रीमद भगवद गीता : ०८

जल-रस, चन्द्रमा,सूर्य-प्रकाश, वेदों-प्रणव, आकाश-शब्द, मनुष्य-पुरुषार्थ मैं हूँ।

 

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।

प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु।।७-८।।

 

हे कौन्तेय! जल में मैं रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सब वेदों में प्रणव ओंकार) हूँ तथा आकाश में शब्द और मनुष्योंमें पुरुषार्थ मैं हूँ। ।। ७-८।।

भावार्थ:

सृष्टि में जितने भी प्राणी-पदार्थों है, उन सबका कुछ न कुछ गुण है। वह प्राणी-पदार्थों उन गुणों के कारण ही जानने में आते है। प्राणी-पदार्थों के वह सब गुण परमात्मतत्व से प्राप्त है।

किस प्राणी-पदार्थ का क्या गुण है, इस का वर्णन इस श्लोक से श्लोक ११ तक हुआ है।

पुनः यहाँ यह बात जननी है की “मैं” पद का अर्थ परमात्मतत्व से है।

जल का जो द्रव्य रूप गुण है, उसका कारण परमात्मतत्व है। चन्द्रमा और सूर्य में जो विलक्षण शक्ति प्रभा (प्रकाश) है उसका कारण परमात्मतत्व है।

सूर्य में रासयनिक क्रिया होती है हो रही है। उस रासयनिक क्रिया से प्रकाश उत्त्पन्न होता है। वह प्रकाश कई करोड़ दूर पृथ्वी तक आता है। यह सब क्रिया का मूल तत्व कारण परमात्मतत्व है।

आकाश में जो ध्वनि है और उसका मूल शब्दः घोष (ओंकार) है। उस ओंकार का कारण परमात्मतत्व है।

मनुष्य में जो ज्ञानिन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि की सहायता से जो कार्य करनी की शक्ति है उसको यहाँ पुरुषार्थ कहा गया है और उस पुरुषार्थ रूपी शक्ति का कारण परमात्मतत्व है।

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