श्रीमद भगवद गीता : १२

सृष्टि, और उसके गुण का कारण परमात्मतत्व है, परन्तु न वह करने वाले है, न ही कराने वाले।

 

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये।

मत्त एवेति तान्विद्धि नत्वहं तेषु ते मयि।।७-१२।।

 

जो भी सात्त्विक (शुद्ध), राजसिक (क्रियाशील) और तामसिक गुण हैं, उन सबको तुम मेरे से उत्पन्न हुए जानो; तथापि न मैं उनमें हूँ और न वह मेरे अधीन है। ।।७-१२।।

भावार्थ:

मनुष्य के समस्त कार्य सात्त्विक, राजस और तामस गुणों के प्रभाव में होते है। मनुष्य में स्थित इन गुणों का कारण परमात्मतत्व है। परन्तु भगवान श्री कृष्ण यहाँ स्पष्ट करते है की सात्त्विक, राजस और तामस – यह तीनों गुण के उत्पन्न होने का कारण तो परमात्मतत्व है परन्तु यह गुण परमात्मतत्व के कार्य नहीं है, यह परमात्मतत्व के आधीन नहीं है।

अध्याय ७ श्लोक ८ से अध्याय ७ श्लोक १२ तक सृष्टि का कारण परमात्मतत्व है ऐसा कहा गया है, और मनुष्य जब इस पर विचार करता है तो वह परमात्मतत्व को इन सबका का कार्य मान लेता है।

‘न त्वहं तेषु ते मयि’: – तथापि न मैं उनमें हूँ और न वह मेरे अधीन है। तात्पर्य है कि गुणों का प्रभाव तो मनुष्य पर है परन्तु यह गुण परमात्मतत्व के अधीन हो कर; या परमात्मतत्व की आज्ञा से प्रभाव नहीं डालते। ना ही परमात्मतत्व मनुष्य शरीर में रह कर गुण रूप से कार्य करता है। कारण की परमात्मतत्व में किसी प्रकार की क्रिया नहीं होती।

प्रकृति में जितनी भी क्रिया होती है उन सब के पीछे कारण होता और उस कारण पर शौध करने पर कारण में क्रिया दिखती है और पुनः उस क्रिया का कारण दीखता है।  इस प्रकार शौध करते-करते जो मूल, सुक्षम से भी सुक्षम तत्व है, जिसको प्रकृति पदार्थ से जाना नहीं जा सकता, वह परमात्मतत्व कारण रूप तो है पर उसके क्रिया नहीं है, क्योकि तत्व का अंत है, जिसके आगे कोई तत्व नहीं है।

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