श्रीमद भगवद गीता : १३

त्रिगुणों से उत्पन्न भावों से मनुष्य मोहित है, जिससे वह मूल तत्व को नहीं जान पाता।

 

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्।

मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ।।७-१३।।

 

त्रिगुणों से उत्पन्न हुए इन भावों (विकारों) से मोहित हुआ सम्पूर्ण जगत् (लोग) मेरे अव्यय स्वरूप को नहीं जान पाते। ।।७-१३।।

भावार्थ:

सात्त्विक राजस और तामस, गुण और विकाररूप राग द्वेष और मोह आदि भाव से समस्त जगत् (प्राणि समूह) मोहित हो रहा है अर्थात् विवेकशून्य है। अतः इन उपर्युक्त गुणों से अतीत विलक्षण, अविनाशी तथा जन्मादि सम्पूर्ण भाव विकारों से रहित परमात्मतत्व को नहीं जान पाता।

द्रष्टा रूप से बाह्य जगत् का अनुभव तो अहंकार को होता है और अनुभव के आधार पर शरीर के दुवारा हो रही क्रिया का भी अनुभव होता है परन्तु अहंकार को यह ज्ञात नहीं होता की अनुभव का कारण संस्कार है और अनुभव के अनुरूप मनुष्य जो क्रिया करता है वह संस्कार और प्रकृति के तीन गुण (सत्व, रज और तम) है।

अर्थात् द्रष्टा रूप अहंकार (मैं), शरीर (इन्द्रिय, मन बुद्धि) से होने वाली क्रिया, और उससे उत्पन्न भाव को स्वयं की क्रिया, एवं भाव मान लेता है (उनके साथ तादात्म्य कर लेता है) और मोहित होता है। अहंकार (मैं) केवल द्रष्टा रूप है कर्त्ता रूप नहीं है।

शरीर को अपना मानना ‘ममता’ है और अपने को शरीर मानना ‘अहंता’ है। शरीर के साथ अहंता-ममता करना ही मोहित होना है।

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