श्रीमद भगवद गीता : १८

समता युक्त ज्ञानी भक्त परमात्मा का ही स्वरूप है।

 

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।

आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्।।७-१८।।

 

 

(यद्यपि) ये सब भक्त उदार हैं, परन्तु ज्ञानी तो मेरा स्वरूप ही है ऐसा मेरा मत है । क्योंकि वह समता युक्त स्थिर बुद्धि वाला केवल परमात्मतत्व को ही सभी ओर स्थित देखता है। ।।७-१८।।

भावार्थ:

‘उदाराः‘ – जो साधक अहंकार का त्याग कर शरीर के द्वारा हो रही क्रिया का श्रय अन्य किसी और को देता है तो वह उदार है।

यह उदार भाव ही है, की अहंकारी, सकामी मनुष्य कामना पूर्ति का कारण, शरण गये देवता को मानता है, स्वयं को नहीं। यहा कामना पूर्ति बन्धन है, परन्तु उदार भाव, शुभ भाव है।

अध्याय ७ श्लोक १६ में चार प्रकार के भक्तों का वर्णन हुआ है। इनमें से आर्त और अर्थार्थी अपनी कामना पूर्ति के लिये कार्य परिस्थिति का श्रय परमात्मा को देते है। यह उदार भाव ही है, की अहंकारी, सकामी मनुष्य कामना पूर्ति का कारण, शरण गये देवता को मानता है, स्वयं को नहीं। परन्तु इनका परमात्मा को श्रय देना स्वार्थ वश है।

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण चारों भक्तों को उदार मानते है। परन्तु समता युक्त ज्ञानी भक्त को भगवान श्रीकृष्ण परमात्मा स्वरूप ही मानते है।

क्योंकि वह जानता है कि वह स्वयं कर्त्ता नहीं है। सभी कार्य शरीर, मन और बुद्धि से हो रहे है, जिसका कारण परमात्मा तत्व है। उसको संसार से कुछ भी प्राप्त करने की कामना नहीं है। वह संसार और शरीर पर आश्रित नहीं होता। उसका आश्रय केवल परमात्मा होते है। वह सम्पूर्ण सृष्टि को परमात्मा का ही स्वरूप देखता है। उसके सभी कार्य प्रकृति और समाज के लिये होते है।

उसकी वृत्ति किसी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिको लेकर समता से, हटती नहीं, और कर्तव्य में ही लगी रहती है।

ज्ञानी भक्त मेरा ही स्वरूप है। यह विषय भगवान श्रीकृष्ण ने पूर्व में अध्याय ४ श्लोक १० में भी इस परककर कहा है।

“राग, भय और क्रोधसे सर्वथा रहित, मेरे (परमात्मा) में तन्मय हुए, मेरे ही आश्रित तथा ज्ञानरूप तपसे पवित्र हुए बहुत-से साधक मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं”।

इस श्लोक से स्पष्ट होता है कि वह मनुष्य परमात्मा स्वरूप ही है, जो स्वयं की सत्ता न मान कर केवल परमात्मा की सत्ता मानता है। और जिसके सभी कार्य प्रेम (एकत्व) भाव से प्रकृति और समाज के लिये होते है।

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