श्रीमद भगवद गीता : २२

भक्ति करते हुए कामना पूर्ति होने पर मनुष्य की श्रद्धा देवता के प्रति दृढ़ होती है।

 

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।

लभते च ततः कामान्मयैव विहितान् हि तान्।।७-२२।।

 

देवता की भक्ति करते हुए सकाम भाव पूर्वक कार्य करने पर मनुष्य को मेरे द्वारा विधान किये हुये फल की प्राप्ति होने पर मनुष्य की श्रद्धा दृढ़ होती है। ।।७-२२।।

 

भावार्थ:

देवता में श्रद्धा और भक्ति पूर्वक मनुष्य जब कामना पूर्ति के लिये सुयोजित प्रकार से कार्य करता है, और परिस्थिति अनुसार उसकी कामना पूर्ति होने पर देवता के प्रति श्रद्धा स्थिर (दृढ़) हो जाती है।

मनुष्य जब देवताओं की पूजा, अर्चना, उपाय एवं नियमों  का पालन करता है तो उसके कार्यों में उत्साह, कार्य करने में कुशलता और एक अनुकूल वातावरण उत्पन्न होता। अहंता न होने के कारण मनुष्य का व्यवहार अन्यों के प्रति अच्छा हो जाता है, जिस के कारण कार्य सिद्धि और अनुकूल फल मिलने की सम्भावना अधिक हो जाती है।

देवता के प्रति श्रद्धा स्थिर (दृढ़) होने का कारण है कामना की पूर्ति होना, जो की मनुष्य की वृति है। यह ही कारण है कि जब मनुष्य की कामना पूर्ति नहीं होती तब वह देवता से विमुख हो जाता है।

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि फल का विधान मेरे द्वारा होता है। मेरे द्वारा विधान करने का अर्थ है की फल परिस्थिति अनुसार सृष्टि के सिद्धान्त के अनुरूप स्वतः ही प्राप्त होता है। मनुष्य का फल प्राप्ति पर कोई अधिकार नहीं है और न ही मनुष्य कारण है। फल प्रकृति से परिस्थिति अनुसार स्वतः प्राप्त होता है। (अध्याय २ श्लोक ४७)

साथ ही भगवान श्रीकृष्ण न तो मनुष्य रूप से फल का विधान करते है और न परमात्मा रूप से। कारण की परमात्मतत्व में कोई क्रिया नहीं होती।

सभी क्रियाएँ सृष्टि में स्वतः ही होती है और क्रिया के होने का कारण परमात्मतत्व है । यह सृष्टि का सिद्धान्त है, जिसको सनातन धर्म से जाना जाता है।

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