श्रीमद भगवद गीता : २६

भूतकाल से अनन्त भविष्य तक का प्रकाशक परमात्मतत्व है। मूढ़ मनुष्य इससे अनभिज्ञ है।

 

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।

भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन।।७-२६।।

 

हे अर्जुन! जो प्राणी भूतकाल में हो चुके हैं, तथा जो वर्तमानमें हैं और जो भविष्यमें होंगे, उन सब प्राणियोंको तो मैं जानता हूँ; परंतु मेरे तत्त्वको न जाननेके कारण ही मूढ़ मनुष्य मुझे नहीं भजते। ।।७-२६।।

भावार्थ:

चेतन तत्त्व ही है जो मनबुद्धि की समस्त वृत्तियों को प्रकाशित करती है। बाह्य भौतिक जगत् का ज्ञान हमें तभी होता है जब इन्द्रियां विषय ग्रहण करती हैं जिसके फलस्वरूप मन में विषयाकार वृत्तियां उत्पन्न होती हैं। इन वृत्तियों का वर्गीकरण करके विषय का निश्चय करने का कार्य बुद्धि का है। मन और बुद्धि की वृत्तियां नित्य चैतन्य स्वरूप परमात्मतत्व से ही प्रकाशित होती हैं। जब मेरे नेत्र या श्रोत, – रूप या शब्द को प्रकाशित करते हैं तब मैं कहता हूँ कि मैं देखता हूँ या मैं सुनता हूँ। संक्षेप में वस्तु का भान होने का अर्थ है उसे जानना और जानने का अर्थ है प्रकाशित करना। प्रकाशित होने का अर्थ है, संचलित होने के लिये उससे  ऊर्जा को प्राप्त करना।

भगवान् श्री कृष्ण इस श्लोक में कहते है कि मैं (परमात्मतत्व) भूत, वर्तमान और भविष्य के भूतमात्र को जानता हूँ (प्रकाशित करता हूँ)। अथार्त परमात्मतत्व न केवल वर्तमान को प्रकाशित करने वाले है, अपितु अनादिकाल से जितने विषय, भावनाएं एवं विचार व्यतीत हो चुके है उन सबके प्रकाशक भी परमात्मतत्व ही उसी प्रकार अनन्तकाल तक भविष्य में आने वाले भूतमात्र के प्रकाशक भी परमात्मतत्व रहने वाले है।

इस श्लोक में ‘मैं जनता हूँ’ का अर्थ है कि ‘मैं’ – परमात्मतत्व सृष्टि को प्रकाशित करता हूँ

इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि को प्रकाश प्रदान करने वाले द्रष्टा (चेतन तत्त्व), को बुद्धि किस प्रकार जान सकती है? बुद्धि के द्वारा जानने में न आने के कारण मनुष्य परमात्मतत्व की सत्ता को नहीं मानते।

यही कारण है कि मनुष्य स्वयं के समान, परमात्मतत्व को सकार रूप में शरीर वाला और जन्म लेने वाला मानता है।

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