भावार्थ:
इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि जिस प्रकार बाह्य भौतिक जगत् जानती है समझती है उसी प्रकार बुद्धि स्वयं के प्रकाशक परमात्मतत्व को नहीं जान सकती, यह सत्य है। परन्तु विवेक दुवारा विचार करने पर परमात्मतत्व का अनुभव आवश्य किया जा सकता है।
परन्तु मनुष्य इस अनुभव को प्राप्त नहीं होता। इस का कारण भगवान् श्री कृष्ण ने इस श्लोक में वर्णन किया है।
अन्य प्राणियों के समान, मनुष्य, में भी स्वयं की सुरक्षा की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। सुरक्षा की यह प्रवृत्ति बुद्धि में उन वस्तुओं की इच्छा उत्त्पन्न करती है जो उसके सुरक्षा जीवन निर्वाह के लिये अनिवार्य है। परन्तु पूर्व संस्कारों और सत्व, रज और तम गुणों के कारण मनुष्य वस्तुओं में भोग कर लेता है और प्राप्त वस्तुओं में राग-द्वेष कर लेता है।
राग-द्वेष रूपी द्वन्द्व से वशीभूत मनुष्य राग की ओर प्रवृत्ति और द्वेष की ओर से निवृत्ति में व्यस्त रहता है। राग-द्वेष से उत्त्पन्न सुख-दुःख से मनुष्य असह्य पीड़ा को भोगता है, परन्तु फिर भी उसी में लगा रहता है और मूढ़ताको प्राप्त हो है।
अतः कामना, भोग, राग-द्वेष से मोहित हुई बुद्धि परमात्मतत्व का अनुभव करने में असमर्थ रहती है।
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