अध्याय ४ में भगवान श्रीकृष्ण योग की परम्परा और दिव्यता का वर्णन करते हुऐ अर्जुन को पूर्व में हुये दिव्य पुरषों का अनुसरण करने को कहते है। साथ ही कर्मों का तत्व क्या है और कर्मों से निर्लिप्त किस प्रकार रहना है, इसका ज्ञान देते है।
भगवान श्रीकृष्ण ने अध्याय ३ में सृष्टि चक्र रूपी यज्ञ का ज्ञान देते है। और उस यज्ञ में मनुष्य की आहुति की अनिवार्यता का वर्णन करते है। अब इस अध्याय में मनुष्य के स्वयं के शरीर से होने वाले कार्यों को यज्ञ से तुलना करते है और उनके प्रकार बताते है। मनुष्य द्वारा अनेक प्रकार से जो यज्ञ किये जाते है, उनमें से ज्ञानयज्ञ को श्रेष्ठ बताते है। और इस प्रकार वह अर्जुन को कहते है कि तुम तत्व ज्ञान को प्राप्त कर योग सिद्धि के लिये यज्ञ करो।
प्राय मनुष्य हवन कुण्ड में अग्नि के दुवारा किये जाने वाले यज्ञ को ही यज्ञ समझते है। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण अध्याय ३ में कहते है कि सृष्टि चक्र के क्रिया रूप होना यज्ञ है। सौरमंडल, ग्रह, नक्षत्र, भूमण्डल (भूमण्डल मे वायु, अग्नि, जल, व्रक्ष, पशु, पक्षी, और समस्त प्रदार्थ), और मनुष्य अपनी क्रिया द्वारा इस यज्ञ में आहुति देते है।
उसी प्रकार अध्याय ४ में भगवान श्रीकृष्ण योग सिद्धि के लिये साधक द्वारा किये जाने वाले कार्यों को यज्ञ कहते है।
।।४-०१।। श्री भगवान् ने कहा: मैंने इस अव्यय योग को विवस्वान् (सूर्य देवता) से कहा; विवस्वान् ने मनु से कहा; मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा।
।।४-०२।। हे परंतप! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त हुये इस योग को राजर्षियों ने जाना। परन्तु बहुत समय बीत जानेके कारण वह योग इस मनुष्यलोकमें प्राय लुप्त सा हो गया।
।।४-०३।। वही यह पुरातन योग जो एक उत्तम रहस्य है, आज मैंने तुम्हें कहा है, क्योंकि तुम मेरे भक्त और मित्र हो।
।।४-०४।। अर्जुन ने कहा: आपका जन्म तो अभीका है और सूर्यका जन्म (आपके) पूर्व का है; अतः आपने ही सृष्टिके आदिमें सूर्यसे यह योग कहा था – यह बात मैं कैसे समझूँ?
।।४-०५।। श्रीभगवान् ने कहा: हे परन्तप अर्जुन! परमात्मा नित्य है। मेरे और तुम्हारे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ, पर तुम नहीं जानते।
।।४-०६।। यद्यपि मैं (परमात्मा) अजन्मा और अविनाशी-स्वरूप हूँ तथा सम्पूर्ण प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अन्यों के समान जन्म लेता हूँ और अन्तःकरण को नियमित करने से मेरी प्रकृति मेरे अधीन रहती है।
।।४-०७।। हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं (परमात्मा) मनुष्य रूप में प्रकट होता हूँ।
।।४-०८।। साधुओं की रक्षा करनेके लिये, पापकर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी भलीभाँति स्थापना करनेके लिये युग-युग से मेरा (परमात्मा) मनुष्य जन्म हुआ है और होता रहेगा।
।।४-०९।। जो मनुष्य मेरे (परमात्मा) दिव्य जन्म और दिव्य रूप से हो रहे कर्म को यथार्थ से जान लेता है, वह मेरा अनुसरण करता हुआ, देह के अन्त और जन्म के भय से मुक्त हो, परमानन्द को प्राप्त होता है।
।।४-१०।। राग, भय और क्रोधसे सर्वथा रहित, मेरे (परमात्मा) में तन्मय हुए, मेरे ही आश्रित तथा ज्ञानरूप तपसे पवित्र हुए बहुत-से साधक मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।
।।४-११।। हे पृथानन्दन! जो साधक जिस भाव से मेरी (परमात्मा की) शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ; श्रेष्ठ मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग (आचरण) का ही अनुसरण करते है।
।।४-१२।। सामान्य मनुष्य इस लोक में कर्मों की सिद्धि (कामना) चाहने वाले देवताओं की उपासना किया करते हैं; क्योंकि कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र ही प्राप्त होते हैं।
।।४-१३।। सृष्टि में गुणों और वर्णों के विभाग से ही सभी कार्य होते है। इसलिये संसारिक कार्यों को करते हुए भी, मुझमें कर्तृत्वाभिमान का भाव नहीं रहता।
।।४-१४।। कारण कि कर्म मुझे लिप्त नहीं करते; न मुझे कर्मफल में स्पृहा है। मेरे इस योग को जो तत्त्वसे जान लेता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता।
।।४-१५।। पूर्वकाल के मुमुक्षुओं ने योग को जानकर ही कर्म किये हैं, इसलिये तुम भी लोकसंग्रह के लिये पूर्वजों के द्वारा सदासे किये जानेवाले कर्तव्यों को उन्हीं की तरह करो।
।।४-१६।। कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इस विषय में बुद्धिमान मनुष्य भी भ्रमित हो जाते हैं। अतः मैं तुम्हें कर्म-तत्त्व भलीभाँति कहूँगा, जिसको जानकर तुम अशुभ कर्म से मोक्ष को प्राप्त हो जाओगे।
।।४-१७।। कर्म का तत्त्व भी जानना चाहिये और अकर्म का तत्त्व भी जानना चाहिये तथा विकर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्म की गति गहन है।
।।४-१८।। जो मनुष्य कर्ममें अकर्म देखता है और जो अकर्ममें कर्म देखता है, वह मनुष्योंमें योगी है और सम्पूर्ण कर्मोंको करनेवाला है।
।।४-१९।। जिसके समस्त कर्मों का आरम्भ कामना के संकल्प से रहित हैं, तथा जिसके सम्पूर्ण कर्म ज्ञानरूपी अग्नि के द्वारा भस्म हुये हैं, उसको ज्ञानिजन पण्डित (बुद्धिमान्) कहते हैं।
।।४-२०।। जो मनुष्य कर्मफल की आसक्ति का त्याग करके आश्रय से रहित और सदा तृप्त है, वह कर्मोंमें प्रवृत्त होते हुए भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता।
।।४-२१।। जिसका अन्तःकरण अच्छी तरह से नियमित और आशा से रहित है, जिसने सब प्रकार के संग्रह का परित्याग कर दिया है, ऐसा योगी शारीरिक कर्म करता हुआ भी पाप को प्राप्त नहीं होता।
।।४-२२।। जो योगी इच्छा रहित, अपने-आप जो कुछ मिल जाय, उसमें सन्तुष्ट रहता है और जो ईर्ष्या से रहित, द्वन्द्वोंसे अतीत तथा सिद्धि और असिद्धिमें सम है, वह कर्म करते हुए भी उससे नहीं बँधता।
।।४-२३।। जो योगी आसक्तिरहित और मुक्त है, जिसकी बुद्धि स्वरूपके ज्ञानमें स्थित है, ऐसे साधक के, केवल यज्ञके लिये कार्य करने पर, उसके सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं।
।।४-२४।। जिस यज्ञ में अर्पण भी ब्रह्म है, हवी भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्ताके द्वारा ब्रह्मरूप अग्निमें आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म है। जिस मनुष्य (यज्ञको करने वाला) की ब्रह्ममें ही कर्म-समाधि हो गयी है, उसके कार्य द्वारा प्राप्त फल भी ब्रह्म ही है।
।।४-२५।। अन्य योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का ही अनुष्ठान करते हैं; और दूसरे ज्ञानीजन ब्रह्मरूप अग्निमें विचाररूप यज्ञके द्वारा ही जीवात्मारूप यज्ञका हवन करते हैं।
।।४-२६।। अन्य योगीजन श्रोत्रादिक समस्त इन्द्रियोंका संयमरूप अग्नियोंमें यज्ञ किया करते हैं और अन्य योगीजन शब्दादिक विषयोंका इन्द्रियरूप अग्नियोंमें यज्ञ किया करते हैं।
।।४-२७।। अन्य योगीजन सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी क्रियाओंको और प्राणोंकी क्रियाओंको ज्ञानसे प्रकाशित आत्म संयम योग रूप अग्नि में यज्ञ किया करते हैं।
।।४-२८।। दूसरे कितने ही तीक्ष्ण व्रत करनेवाले प्रयत्नशील साधक द्रव्य-सम्बन्धी यज्ञ करनेवाले हैं, और कितने ही तपोयज्ञ करनेवाले हैं, और दूसरे कितने ही योगयज्ञ करनेवाले हैं, तथा कितने ही स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करनेवाले हैं।
।।४-२९।। अन्य योगीजन अपानवायु में प्राणका पूरक करके, प्राण और अपानकी गति रोककर फिर प्राणमें अपानका यज्ञ करते हैं।
।।४-३०।। दूसरे नियमित आहार करने वाले (साधक जन) प्राणों को प्राणों में हवन करते हैं। इस प्रकार साधक सभी प्रकार के यज्ञ को जानने वाले हैं, और यज्ञों द्वारा पापों का नाश करने वाले हैं।
।।४-३१।। हे कुरुवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञसे बचे हुए अमृतका अनुभव करनेवाले सनातन परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होते हैं। यज्ञ न करनेवाले मनुष्यके लिये यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा?
।।४-३२।। इस प्रकार और भी अनेक प्रकार के यज्ञ विद्वानों द्वारा विस्तार से कहे गये हैं। उन सब यज्ञोंको तू कर्मजन्य जान। इस प्रकार जानकर यज्ञ करनेसे तुम मोक्ष को प्राप्त हो जाओगे, कर्मबन्धन से मुक्त हो जाओगे।
।।४-३३।। हे परन्तप! द्रव्यों से सम्पन्न होने वाले यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है। हे पार्थ! सम्पूर्ण कर्म और पदार्थ तत्त्वज्ञान में समाप्त हो जाते हैं।
।।४-३४।। तत्त्वज्ञान को (तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषोंके समीप जाकर) समझ। उनको साष्टाङ्ग दण्डवत् प्रणाम, सेवा और सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुष तुम्हें उस तत्त्वज्ञानका उपदेश देंगे।
।।४-३५।। तत्त्वज्ञान का अनुभव करनेके बाद तुम पुन इस प्रकार मोहको नहीं प्राप्त होगे, और हे अर्जुन! जिसके के द्वारा तुम सम्पूर्ण प्राणियोंको निःशेषभावसे पहले अपनेमें और उसके बाद मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में देखोगे।
।।४-३६।। यदि तुम सब पापियोंसे भी अधिक पापी हो, तो भी तुम तत्त्वज्ञान रूपी नौकाके द्वारा, निःसन्देह ही सम्पूर्ण पाप समुद्रसे अच्छी तरह तर जाओगे।
।।४-३७।। हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को सर्वथा भस्म कर देती है, ऐसे ही तत्वज्ञान रूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों में जो अहंता है उसको सर्वथा भस्म कर देती है।
।।४-३८।। इस मनुष्यलोक में तत्वज्ञान के समान पवित्र करनेवाला निःसन्देह दूसरा कोई साधन नहीं है। जिसका योग भली-भाँति सिद्ध हो गया है, वह (योगी) उस तत्त्वज्ञान को अवश्य ही स्वयं अपने-आपमें पा लेता है।
।।४-३९।। जो मनुष्य श्रद्धावान् है। जिसने अन्तःकरण को सयंमित किया है। ऐसा तत्पर मनुष्य तत्वज्ञान को प्राप्त होता है और तत्वज्ञान को प्राप्त होकर वह अविलम्ब परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है।
।।४-४०।। विवेकहीन और श्रद्धारहित संशयात्मा मनुष्य का पतन हो जाता है। ऐसे संशयात्मा मनुष्यके लिये न यह लोक है न परलोक है और न सुख ही है।
।।४-४१।। हे धनञ्जय! योग के द्वारा जिसका सम्पूर्ण कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो गया है और ज्ञानके द्वारा जिसके सम्पूर्ण संशयोंका नाश हो गया है, ऐसे स्वरूप-परायण मनुष्यको कर्म नहीं बाँधते।
।।४-४२।। इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन! हृदयमें स्थित इस अज्ञानसे उत्पन्न अपने संशयका ज्ञानरूप तलवारसे छेदन करके योग में स्थित हो जा, (और युद्धके लिये) खड़ा हो जा।
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