अध्याय ७ से भगवान श्रीकृष्ण परमात्मतत्व का जो विज्ञान है, उस विषय में कहना आरम्भ करते है। मनुष्य की संसार के विषयों में आसक्ति होने का जो विज्ञान है, स्वयं में अहंता होने का जो कारण है, उस ज्ञान का वर्णन भगवान श्रीकृष्ण इस अध्याय से आरम्भ करते है।
मनुष्य संसार में रहते हुए जो करता है उसका कारण क्या है, इसका वर्णन करते है।
अध्याय ५ में भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्टता से कहा है कि परमात्मा सृष्टि चक्र को क्रिया शील बनाय रखने वाला कर्त्ता नहीं है। अपितु परमात्मा सृष्टि चक्र के क्रियाशील होने में कारण है। इस श्लोक में भी भगवान श्रीकृष्ण उन मनुष्यों की निंदा करते है जो परमात्मा के अविनाशी और अव्यक्त स्वरूप को ठीक से नहीं जानते। ठीक से नहीं जानने के कारण वह अपने मनुष्य धर्म का निर्वाह ठीक से नहीं करते।
मनुष्य परमात्मा को सकार रूप में सृष्टि कर्त्ता मान कर उनकी भक्ति करता है। जबकि भगवान श्रीकृष्ण अविनाशी, अव्यक्त परमात्मा को सृष्टि का कारण मान कर उनकी भक्ति करने को कहते है।
।।७-१।। श्रीभगवान् ने कहा: हे पार्थ! मुझमें असक्त हुए मन वाले तथा मेरे आश्रित होकर योगका अभ्यास करते हुए जिस प्रकार तुम मेरे समग्ररूपको निःसन्देह जैसा जानोगें, उसको सुनों।
।।७-२।। मैं तुम्हारे लिए विज्ञान सहित इस ज्ञान को सम्पूर्णतासे कहूँगा, जिसको जाननेके बाद फिर यहाँ और कुछ जानने योग्य (ज्ञातव्य) शेष नहीं रह जाता है।
।।७-३।। सहस्रों मनुष्यों में कोई एक वास्तविक सिद्धिके लिये प्रयत्न करता है और उन प्रयत्नशील साधकों में भी कोई एक ही मुझे तत्त्वसे जानता है।
।।७-४।। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, बुद्धि और अहंकार – यह आठ प्रकार से विभक्त हुई मेरी ‘अपरा’ प्रकृति है।
।।७-५।। हे महाबाहो! इस ‘अपरा’ प्रकृतिसे भिन्न जीवरूपा बनी हुई मेरी ‘परा’ प्रकृति को जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है।
।।७-६।। अपरा और परा, इन दोनों प्रकृतियों के संयोग से ही सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं, ऐसा तुम समझो। मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हूँ।
।।७-७।। हे धनञ्जय! मेरे से अन्यथा दूसरा कोई किञ्चिन्मात्र भी कारण नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् मेरे में ही ओत-प्रोत है, जिस प्रकार दीर्घ तन्तुओंमें वस्त्रकी भाँति तथा सूत्रमें मणियोंकी भाँति पिरोया हुआ होता है।
।।७-८।। हे कौन्तेय! जल में मैं रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सब वेदों में प्रणव ओंकार) हूँ तथा आकाश में शब्द और मनुष्योंमें पुरुषार्थ मैं हूँ।
।।७-९।। पृथ्वी में पवित्र गन्ध मैं हूँ, और अग्नि में तेज मैं हूँ, तथा सम्पूर्ण प्राणियों में जीवनशक्ति मैं हूँ और तपस्वियों में तपस्या मैं हूँ।
।।७-१०।। हे पृथानन्दन! सम्पूर्ण प्राणियोंका अनादि बीज मुझे जान। बुद्धिमानों में बुद्धि और तेजस्वियों में तेज मैं हूँ।
।।७-११।। हे भरत श्रेष्ठ! बलवालोंमें कामना तथा आसक्ति से रहित बल मैं हूँ। मनुषयोंमें धर्मयुक्त काम मैं हूँ।
।।७-१२।। जो भी सात्त्विक (शुद्ध), राजसिक (क्रियाशील) और तामसिक गुण हैं, उन सबको तुम मेरे से उत्पन्न हुए जानो; तथापि न मैं उनमें हूँ और न वह मेरे अधीन है।
।।७-१३।। त्रिगुणों से उत्पन्न हुए इन भावों (विकारों) से मोहित हुआ सम्पूर्ण जगत् (लोग) मेरे अव्यय स्वरूप को नहीं जान पाते।
।।७-१४।। क्योंकि मेरी यह गुणमयी दैवी माया बड़ी दुरत्यय है अर्थात् इससे पार पाना बड़ा कठिन है। जो केवल मेरे ही शरण होते हैं, वे इस माया को तर जाते हैं।
।।७-१५।। दुष्कृत्य करने वाले, मूढ, जो नराधम पुरुष हैं; माया के द्वारा जिनका ज्ञान हर लिया गया है, वे आसुरी भाव को धारण करने वाले मेरें (परमात्मा) शरण में नहीं आते।
।।७-१६।। हे भरत श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करने वाले (सुकृतिन:) आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी ऐसे चार प्रकार के लोग मुझे भजते हैं अर्थात् मेरे शरण होते हैं।
।।७-१७।। उन चार भक्तोंमें मेरे में निरन्तर लगा हुआ, नित्ययुक्त ज्ञानी श्रेष्ठ है; क्योंकि ज्ञानी भक्त को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह भी मेरे को अत्यन्त प्रिय है।
।।७-१८।। (यद्यपि) ये सब भक्त उदार हैं, परन्तु ज्ञानी तो मेरा स्वरूप ही है ऐसा मेरा मत है । क्योंकि वह समता युक्त स्थिर बुद्धि वाला केवल परमात्मतत्व को ही सभी ओर स्थित देखता है।
।।७-१९।। बहुत जन्मों के अर्न्तराल में ‘सब कुछ परमात्मा ही है’, ऐसा जो ज्ञानवान् मेरे शरण होता है; अतः ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है।
।।७-२०।। भोग विशेष की कामना से जिनका ज्ञान हर लिया गया है, ऐसे मनुष्य अपनी-अपनी प्रकृतिसे नियन्त्रित होकर (देवताओंके) उन-उन नियमों को धारण करते हुए उन-उन देवताओं के शरण हो जाते हैं।
।।७-२१।। जो-जो (सकामी) भक्त जिस-जिस (देवता के) रूप को श्रद्धा से पूजता है, उस-उस (भक्त) की उस ही देवता के प्रति श्रद्धा स्थिर हो जाती है।
।।७-२२।। देवता की भक्ति करते हुए सकाम भाव पूर्वक कार्य करने पर मनुष्य को मेरे द्वारा विधान किये हुये फल की प्राप्ति होने पर मनुष्य की श्रद्धा दृढ़ होती है।
।।७-२३।। परन्तु उन अल्प बुद्धि मनुष्यों का वह फल नाशवान् होता है। देवताओं का पूजन करनेवाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मेरे (परमानन्द) को ही प्राप्त होते हैं।
।।७-२४।। विवेकहीन मनुष्य मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी परमभावको न जानते हुए अव्यक्त (मन-इन्द्रियोंसे पर) मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्माको मनुष्यकी तरह ही शरीर धारण करनेवाला मानते हैं।
।।७-२५।। जो मूढ़ मनुष्य मेरेको अज और अविनाशी ठीक तरहसे नहीं जानते (मानते), उन सबके सामने योगमाया से अच्छी तरहसे आवृत हुआ मैं प्रकट नहीं होता।
।।७-२६।। हे अर्जुन! जो प्राणी भूतकाल में हो चुके हैं, तथा जो वर्तमानमें हैं और जो भविष्यमें होंगे, उन सब प्राणियोंको तो मैं जानता हूँ; परंतु मेरे तत्त्वको न जाननेके कारण ही मूढ़ मनुष्य मुझे नहीं भजते।
।।७-२७।। हे परन्तप भारत! इच्छा और द्वेष से उत्पन्न होनेवाले द्वन्द्व-मोहसे मोहित सम्पूर्ण प्राणी संसारमें अनन्त काल से मूढ़ताको प्राप्त हो रहे हैं।
।।७-२८।। परन्तु जिन पुण्यकर्मा मनुष्यों के पाप नष्ट गये हैं, वे द्वन्द्वमोहसे रहित हुए मनुष्य दृढ़व्रती होकर मेरा भजन करते हैं।
।।७-२९।। जरा (वृद्धावस्था) और मरण (मृत्यु) के भय से मोक्ष पानेके लिये जो मेरा आश्रय लेकर प्रयत्न करते हैं, वे उस ब्रह्मको, सम्पूर्ण अध्यात्मको और सम्पूर्ण कर्मको भी जान जाते हैं।
।।७-३०।। जो मनुष्य अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञके सहित मुझे जानते हैं, वे निरुद्धचित्त योगी अन्तकालमें भी मुझे ही जानते हैं अर्थात् प्राप्त होते हैं।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
Read MoreTo give feedback write to info@standupbharat.in
Copyright © standupbharat 2024 | Copyright © Bhagavad Geeta – Jan Kalyan Stotr 2024