श्रीमद भगवद गीता : अध्याय ११

अध्याय १० श्लोक १६ एवं १७ में अर्जुन प्रश्न करते है कि हे योगेश्वर! आप अपने विभूतियों का वर्णन कीजिये जो लोकों में व्याप्त है। किन-किन भावों में आपका चिन्तन किया जा सकता है, इसका वर्णन कीजिये।

इस के उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण अध्याय १० श्लोक १८ से श्लोक ४२ तक अपनी विभिन विभूतियों का वर्णन करते है।

तदुपरान्त अध्याय ११ में अर्जुन ईश्वरीय रूप को प्रत्यक्ष देखने की इच्छा प्रकट करते है। अतः इस अध्याय में ईश्वरीय रूप का वर्णन है, जिसकी व्याख्या नहीं की गई है।

कृपया अध्याय १२ पर प्रस्थान करे।

०१ - ०४ अर्जुन द्वारा परमात्मा के ईश्वरीय रूप को प्रत्यक्ष देखने के लिये प्राथना।

।।११-१।। अर्जुन ने कहा: मुझ पर अनुग्रह करने के लिए जो परम गोपनीय, अध्यात्मविषयक वचन (उपदेश) आपके द्वारा कहा गया, उससे मेरा मोह दूर हो गया है।।
।।११-२।। हे कमलनयन! सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति और प्रलय मैंने विस्तारपूर्वक आपसे ही सुना है और आपका अविनाशी माहात्म्य भी सुना है।
।।११-३।। हे परमेश्वर! आप अपने को जैसा कहते हो, यह ठीक ऐसा ही है। (परन्तु) हे पुरुषोत्तम! मैं आपके ईश्वरीय रूप को प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ।
।।११-४।। हे प्रभो! यदि आप मानते हैं कि मेरे द्वारा वह आपका रूप देखा जाना संभव है, तो हे योगेश्वर! आप अपने अव्यय रूप का दर्शन कराइये।

०५ - १४ भगवान श्रीकृष्ण का दिव्यचक्षु प्रदान करना और अपना विराट रूप दिखाना।

।।११-५।। श्रीभगवान् ने कहा: हे पार्थ! मेरे सैकड़ों तथा सहस्रों नाना प्रकार के और नाना वर्ण तथा आकृति वाले दिव्य रूपों को तुम देखो।
।।११-६।। हे भारत! (मुझमें) आदित्यों, वसुओं, रुद्रों तथा अश्विनीकुमारों और मरुद्गणों को देखो, तथा और भी अनेक इसके पूर्व कभी न देखे हुए आश्चर्यों को देखो।
।।११-७।। हे गुडाकेश! आज (अब) इस मेरे शरीर में एक स्थान पर स्थित हुए चराचर सहित सम्पूर्ण जगत् को देखो तथा और भी जो कुछ तुम देखना चाहते हो, उसे भी देखो।
।।११-८।। परन्तु तुम अपने इन्हीं (प्राकृत) नेत्रों के द्वारा मुझे देखने में समर्थ नहीं हो; (इसलिए) मैं तुम्हें दिव्यचक्षु देता हूँ, जिससे तुम मेरी ईश्वर-सम्बन्धी सामर्थ्य को देख सकोगे।
।।११-९।।संजय ने कहा: हे राजन्! महायोगेश्वर हरि ने इस प्रकार कहकर फिर अर्जुन के लिए परम ऐश्वर्ययुक्त रूप को दर्शाया।
।।११-१०।। ।।११-११।। जिसके अनेक मुख और नेत्र हैं, अनेक तहरके अद्भुत दर्शन हैं, अनेक दिव्य आभूषण हैं, हाथोंमें उठाये हुए अनेक दिव्य आयुध हैं तथा जिनके गलेमें दिव्य मालाएँ हैं, जो दिव्य वस्त्र पहने हुए हैं, जिनके ललाट तथा शरीरपर दिव्य चन्दन, कुंकुम आदि लगा हुआ है, ऐसे सम्पूर्ण आश्चर्यमय, अनन्तरूपवाले तथा चारों तरफ मुखवाले देव- (अपने दिव्य स्वरूप-) को भगवान् ने दिखाया।
।।११-१२।। आकाश में सहस्र सूर्यों के एक साथ उदय होने से उत्पन्न जो प्रकाश होगा, वह उस (विश्वरूप) परमात्मा के प्रकाश के सदृश होगा।
।।११-१३।। पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उस समय अनेक प्रकार से विभक्त हुए सम्पूर्ण जगत् को देवों के देव श्रीकृष्ण के शरीर में एक स्थान पर स्थित देखा।
।।११-१४।। भगवान् के विश्वरूपको देखकर अर्जुन बहुत चकित हुए और आश्चर्यके कारण उनका शरीर रोमाञ्चित हो गया। वे हाथ जोड़कर विश्वरूप देवको मस्तकसे प्रणाम करके बोले।

१५ - ३१ अर्जुन द्वारा दिव्य रूप का वर्णन।

।।११-१५।। अर्जुन ने कहा: हे देव! मैं आपके शरीर में समस्त देवों को, प्राणियोंके विशेष-विशेष समुदायोंको और कमलासन पर स्थित सृष्टि के स्वामी ब्रह्माजी को, सम्पूर्ण ऋषियोंको और सम्पूर्ण दिव्य सर्पोंको देख रहा हूँ।
।।११-१६।। हे विश्वेश्वर! मैं आपकी अनेक बाहु, उदर, मुख और नेत्रों से युक्त तथा सब ओर से अनन्त रूपों वाला देखता हूँ। हे विश्वरूप! मैं आपके न अन्त को देखता हूँ और न मध्य को और न आदि को।
।।११-१७।। मैं आपका मुकुटयुक्त, गदायुक्त और चक्रधारण किये हुये तथा सब ओर से प्रकाशमान् तेज का पुंज, दीप्त अग्नि और सूर्य के समान ज्योतिर्मय, देखने में अति कठिन और अप्रमेयस्वरूप सब ओर से देखता हूँ।
।।११-१८।। आप ही जानने योग्य (वेदितव्यम्) परम अक्षर हैं; आप ही इस विश्व के परम आश्रय (निधान) हैं! आप ही शाश्वत धर्म के रक्षक हैं और आप ही सनातन पुरुष हैं, ऐसा मेरा मत है।
।।११-१९।। मैं आपको आदि, अन्त और मध्य से रहित तथा अनंत सार्मथ्य से युक्त और अनंत बाहुओं वाला तथा चन्द्रसूर्यरूपी नेत्रों वाला और दीप्त अग्निरूपी मुख वाला तथा अपने तेज से इस विश्व को तपाते हुए देखता हूँ।
।।११-२०।। हे महात्मन्! स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य का यह आकाश तथा समस्त दिशाएं अकेले आप से ही व्याप्त हैं; आपके इस अद्भुत और उग्र रूप को देखकर तीनों लोक अतिव्यथा (भय) को प्राप्त हो रहे हैं।
।।११-२१।। ये समस्त देवताओं के समूह आप में ही प्रवेश कर रहे हैं और कई एक भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आप की स्तुति करते हैं; महर्षि और सिद्धों के समुदाय ‘कल्याण होवे’ (स्वस्तिवाचन करते हुए) ऐसा कहकर, उत्तम (या सम्पूर्ण) स्रोतों द्वारा आपकी स्तुति करते हैं।
।।११-२२।। रुद्रगण, आदित्य, वसु और साध्यगण, विश्वेदेव तथा दो अश्विनीकुमार, मरुद्गण और उष्मपा, गन्धर्व, यक्ष, असुर और सिद्धगणों के समुदाय- ये सब ही विस्मित होते हुए आपको देखते हैं।
।।११-२३।।हे महाबाहो! आपके बहुत मुख तथा नेत्र वाले, बहुत बाहु, उरु (जंघा) तथा पैरों वाले, बहुत-ंंसी उदरों वाले तथा बहुतसी विकराल दाढ़ों वाले महान् रूप को देखकर सब लोग व्यथित हो रहे हैं और उसी प्रकार मैं भी (व्याकुल हो रहा हूँ)।
।।११-२४।।हे विष्णो! आकाश के साथ स्पर्श किये हुए देदीप्यमान अनेक रूपों से युक्त तथा विस्तरित मुख और प्रकाशमान विशाल नेत्रों से युक्त आपको देखकर भयभीत हुआ मैं धैर्य और शान्ति को नहीं प्राप्त हो रहा हूँ।
।।११-२५।। आपके विकराल दाढ़ों वाले और प्रलयाग्नि के समान प्रज्वलित मुखों को देखकर, मैं न दिशाओं को जान पा रहा हूँ और न शान्ति को प्राप्त हो रहा हूँ; इसलिए हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न हो जाइए।
।।११-२६।। और ये समस्त धृतराष्ट्र के पुत्र राजाओं के समुदाय सहित आप में प्रवेश करते हैं। भीष्म, द्रोण तथा कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं के सहित।
।।११-२७।। तीव्र वेग से आपके विकराल दाढ़ों वाले भयानक मुखों में प्रवेश करते हैं और कई एक चूर्णित शिरों सहित आपके दांतों के बीच में फँसे हुए दिख रहे हैं।
।।११-२८।। जैसे नदियों के बहुत से जलप्रवाह समुद्र की ओर वेग से बहते हैं, वैसे ही मनुष्यलोक के ये वीर योद्धागण आपके प्रज्वलित मुखों में प्रवेश करते हैं।।
।।११-२९।।जैसे पतंगे अपने नाश के लिए प्रज्वलित अग्नि में अतिवेग से प्रवेश करते हैं, वैसे ही ये लोग भी अपने नाश के लिए आपके मुखों में अतिवेग से प्रवेश करते हैं।
।।११-३०।। हे विष्णो! आप प्रज्वलित मुखों के द्वारा इन समस्त लोकों का ग्रसन करते हुए आस्वाद ले रहे हैं, आपका उग्र प्रकाश सम्पूर्ण जगत् को तेज के द्वारा परिपूर्ण करके तपा रहा है।
।।११-३१।। (कृपया) मेरे प्रति कहिये, कि उग्ररूप वाले आप कौन हैं? हे देवों में श्रेष्ठ! आपको नमस्कार है, आप प्रसन्न होइये। आदि स्वरूप आपको मैं (तत्त्व से) जानना चाहता हूँ, क्योंकि आपकी प्रवृत्ति (अर्थात् प्रयोजन को) को मैं नहीं समझ पा रहा हूँ।

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