श्रीमद भगवद गीता : ३९

अध्याय १ श्लोक ३९

 

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।

कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।।१-३९।।

 

परन्तु, हे जनार्दन! कुल का नाश करने से होनेवाले दोष को ठीक-ठीक जानने वाले हम लोगों, इस पाप से विरत होने का विचार क्यों न करें? ||१-३९||

 

भावार्थ:

अध्याय १ श्लोक ३९ – अर्जुन ने कहा:

यद्यपि दुर्योधनादि अपने कुलक्षय से होने वाले दोष को और मित्रद्रोह से होने वाले पाप को नहीं देखते, तो हम पाण्डवों को कुलक्षय से होने वाली अनर्थपरम्परा को देखना ही चाहिये। और कुलक्षय से होने वाले दोषों से बचने के लिये युद्ध से विरत हो जाने का विचार करना ही उचित है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

अर्जुन दुर्योधनादि के लोभ को ठीक तरह से देख रहे है। दुर्योधन प्रेरित युद्ध से होने वाले सामाजिक विनाश को ठीक तरह से देख रहे है। दुर्योधन द्वारा कुल का नाश करनेसे होने वाले भयंकर पाप को ठीक तरह से देख रहे है। परन्तु वह वे खुद स्वजनों के स्नेह-(मोह) में आबद्ध होकर, दुर्योधन द्वारा किये जाने वाले दुष्कर्म स्वयं के द्वारा किये जाने वाले मान रहे है। सम्बन्दों के मोह वश वे अपने क्षत्रिये कर्तव्यको नहीं समझ रहे हैं।

सनातन धर्म पालन हेतु:

यह नियम है कि मनुष्य की दृष्टि जबतक दूसरों के दोष की तरफ रहती है, तब तक उसको अपना दोष नहीं दीखता, उलटे एक अभिमान होता है कि इनमें तो यह दोष है, पर हमारेमें यह दोष नहीं है। और इस अभिमान में मनुष्य अपने अन्य दोषों को देख नहीं पाता। दूसरोंका दोष देखना एवं अपने में अच्छाई का अभिमान करना, ये दोनों दोष साथमें ही रहते हैं।

श्रीमद भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को क्षत्रिये और अन्य कर्तव्यों (धर्म) को ज्ञात कराते है और अपने कर्तव्यों का पालन करने को ही कहते है। जिस प्रकार अर्जुन का स्वजनों के प्रति मोह उत्तपन्न होने के कारण उनका विवेक जाता रहा, उसी प्रकार सधारण मनुष्य का भी अनेक प्रकार की विषम परस्थिति होने पर वह किंकर्तव्यमूढ़ हो जाता है।

 

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