श्रीमद भगवद गीता : ४१

अध्याय १ श्लोक ४१

 

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।

स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः।। १-४१।।

 

हे कृष्ण! अधर्म के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं; (और) हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है। ||१-४१||

 

भावार्थ:

अध्याय १ श्लोक ४१ – अर्जुन ने कहा:

जब कुलमें अधर्म बढ़ जाता है तब आचरण अशुद्ध होने लगते हैं और बुद्धि तामसी बन जाती है। बुद्धि तामसी होनेसे मनुष्य अकर्तव्य और कर्तव्य में भेद करने में अस्मर्थ हो जाता है। इस विपरीत बुद्धिसे कुलकी स्त्रियाँ दूषित अर्थात् व्यभिचारिणी हो जाती हैं। स्त्रियोंके दूषित होनेपर जो संतान पैदा होती है वह अधर्मी हो जाती है। अतः उनके जन्म संस्कार ही अधर्म का पालन करने वाले होजाते है। इस को ही यहा वर्णसंकर कहा गया है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

पुरुष और स्त्री दोनों अलगअलग वर्णके होनेपर उनसे जो संतान पैदा होती है वह भी वर्णसंकर कहलाती है। कारण की पुरुष और स्त्री अलग-अलग कुल के होने के कारण उनके धर्म भी अलग होते है। उनसे उत्तपन्न सन्तान किसी एक कुल मर्यादा का पालन करने में असमर्थ होते है।

 

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