श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद का वर्णन किया गया है।

यह संवाद कुरुक्षेत्र में कौरव और पाण्डव के मध्य युद्ध आरम्भ होने से पूर्व हुआ।

भगवान श्रीकृष्ण, के लिये एक विकट परिस्थिति उत्त्पन्न हो जाती है, जब अर्जुन युद्ध में भाग लेने से इंकार कर देता है। विकट परिस्थिति थी, क्योकि अर्जुन जैसे महान योद्धा ने युद्ध के लिये तब इंकार किया जब युद्ध के लिये शंखनाद हो गया था।

युद्ध में अर्जुन के सभी सम्बन्धी मृत्यु को प्राप्त हो जायेगे, ऐसा विचार कर अर्जुन शोक ग्रस्त हो जाते है और युद्ध का त्याग कर देते है।

ऐसी परिस्थिति में भगवान श्रीकृष्ण, वह सब वचन कहते है, जिससे की अर्जुन का शोक दूर हो जाय और अर्जुन युद्ध के लिए प्रेरित हो जाय। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण अपने विचार कहते गये, और अर्जुन ने जब जो प्रश्न किया, उसका यथोचित उत्तर देते गये।

भगवान श्रीकृष्ण के वचनों का उद्देश्य क्या था?

ग्रन्थ का अध्यन करने वाले को अध्यन से पूर्व, मुख्य रूप से यह विचार कर लेना चाहिये कि भगवान श्रीकृष्ण के वचनों का उद्देश्य क्या था?

भगवान श्रीकृष्ण के वचनों का उद्देश्य था, अर्जुन के शोक को दूर करना और अर्जुन युद्ध के लिए प्रेरित करना।

अर्जुन के शोक का कारण था, उसमें स्थित विषमता, विकार एवं अज्ञान। अतः भगवान श्रीकृष्ण ने वह सब उपदेश दिये जिससे की अर्जुन में स्थित विषमता, विकार एवं अज्ञान दूर हो जाय। साथ में भगवान श्रीकृष्ण ने वह सब ज्ञान दिया जो अर्जुन का कल्याण करने वाला हो।

परन्तु इस प्रक्रिया में एक ऐसा ग्रन्थ प्रस्तुत होता है, जो सम्पूर्ण मानव समाज के लिये कल्याण करने वाला है।

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने वचन कहने से पूर्व ऐसा विचार नहीं था कि मैं ऐसे ग्रन्थ का निर्माण करू जिससे की मानव का कल्याण हो।

भगवान श्रीकृष्ण वह सब विषय कहते गए जिससे अर्जुन युद्ध के लिये प्रेरित हो और उसका कल्याण हो। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण वह सब वचन जान मानस के लिये भी उपयुक्त थे, जीवन का पथ प्रर्दशक और कल्याण करने वाले थे।

अतः मनुष्य जीवन का उद्देश्य, जीवन यापन कि कला, मनुष्य के कर्तव्य और सुख दुःख के बन्धन से मुक्ति पाकर, किस प्रकार परमानन्द परमात्मा कि प्राप्ती की जा सकती है, इसका सम्पूर्ण ज्ञान श्रीमद भागवत गीता के अध्यन करने से होता है।

गीता का अध्यन, विवेचन और आत्मसात करनेसे मनुष्य भयंकर से भयंकर परिस्थितिमें भी अपने मनुष्य जन्म के ध्येय को सुगमता पूर्वक सिद्ध कर लेता है।

श्रीमद भागवत गीता के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक का प्रथम शब्द धर्म है। और यह ही श्रीमद भागवत गीता की, मनुष्य के लिये मूल शिक्षा हैं।

अध्याय १

क्युकि भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच का संवाद किसी प्रस्थिति और सन्दर्भ में हुआ है, इसलिये उस प्रस्थिति और सन्दर्भ के परिपेक्ष के लिये महर्षि वेद व्यास ने श्रीमद भागवत गीता का आरम्भ धृतराष्ट्र के उवाच से किया है। अतः उस परिपेक्ष को जानना, समझना अत्यन्त आवश्यक है।

मनुष्य जब संसार और संसार के सम्बंध को लेकर आसक्त हो जाता है, तब उसका कल्याण किस में हैं और उसका अपने धर्म (कर्त्तव्य) क्या है इसका ज्ञान नहीं रहता।

अर्जुन को भी अपने सम्बंधों को लेकर, किस प्रकार मुड़ता छा जाती है, इस का वर्णन इस अध्याय में हुआ है। मुड़ता के वश वह युद्ध करने से इन्कार कर देते हैं।

अध्याय २

भगवान् श्रीकृष्ण के लिये एक विकट परिस्थिति उत्पन्न होती है, जब अर्जुन युद्ध करने से स्पष्ट मना कर देते है। ऐसी अवस्था में उनका केवल एक ही उद्धेश्य होता है कि, वह पुनः अर्जुन को युद्ध करने के लिये प्रेरित करे। क्योकि भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन युद्ध में खड़े थे, इसलिये भगवान् श्रीकृष्ण चाहते थे की यह कार्य शीघ्रता से पूर्ण हो।

भगवान् श्रीकृष्ण इस अध्याय में तीन प्रकार से अर्जुन को युद्ध करने के लिये प्ररित करने का प्रयत्न करते हैं।

सर्व प्रथम क्योंकि अर्जुन को संबंधियों के मृत्यु को लेकर भय था, इसलिये उसको दूर करने के लिये वह शरीर और शरीरी के भेद का तत्व ज्ञान देते हैं, और युद्ध करने के लिये कहते हैं।

उसके बाद समाजिक दृष्टि से युद्ध करना आवश्यक है,  यह उनका दूसरा प्रयत्न होता है।

तीसरे चरण में भगवान् श्रीकृष्ण कामना का त्याग कर के अपने स्वधर्म का पालन करने को कहते हैं। कामना के त्याग से ही मनुष्य के अन्त:करण में समता आती है। समता ही योग है। इन्द्रियों के विषय में रस ही निर्वाण ब्रह्मा की प्राप्ति में बाधा है। इस रस का त्याग किस प्रकार हो। योग में स्थित साधक के क्या लक्षण होते है, इस का वर्णन भगवान् श्रीकृष्ण इस अध्याय में करते है।

अध्याय 3

तत्व ज्ञान से समता की प्राप्ति अथवा कामना का त्याग कर स्वधर्म का पालन करते हुये समता प्राप्ति को अर्जुन समझ नहीं पाते। क्योंकि उनमें युद्ध न करने का भाव था,  इसलिये वह ज्ञान और कर्म को अलग-अलग फल वाला मानते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण इस भेद का निवारण करते हैं और बताते हैं कि मनुष्य कल्याण में कर्त्तव्यों की अनिवार्यता है।

सृष्टि चक्र रूपी यज्ञ सिद्धांत को सुरक्षित रखने के लिये मनुष्य को धर्म (कर्त्तव्य) का पालन करना चाहिये, इसका वर्णन करते हैं। श्रेष्ठ पुरुष निश्चित रूप से, कर्तव्य का पालन करते हैं, क्योंकि साधारण मनुष्य उनका अनुसरण करते हैं। योग सिद्धी के लिये मनुष्य को कामना और अहंकार का त्याग करना चाहिये।

अध्याय ४

अध्याय ४ में भगवान श्रीकृष्ण योग की परम्परा और दिव्यता का वर्णन करते हुऐ अर्जुन को पूर्व में हुये दिव्य पुरषों का अनुसरण करने को कहते है। साथ ही कर्मों का तत्व क्या है और कर्मों से निर्लिप्त किस प्रकार रहना है, इसका ज्ञान देते है।

भगवान श्रीकृष्ण ने अध्याय ३ में सृष्टि चक्र रूपी यज्ञ का ज्ञान देते है। और उस यज्ञ में मनुष्य की आहुति की अनिवार्यता का वर्णन करते है। अब इस अध्याय में मनुष्य के स्वयं के शरीर से होने वाले कार्यों को यज्ञ से तुलना करते है और उनके प्रकार बताते है। मनुष्य द्वारा अनेक प्रकार से जो यज्ञ किये जाते है, उनमें से ज्ञानयज्ञ को श्रेष्ठ बताते है। और इस प्रकार वह अर्जुन को कहते है कि तुम तत्व ज्ञान को प्राप्त कर योग सिद्धि के लिये यज्ञ करो।

प्राय मनुष्य हवन कुण्ड में अग्नि के दुवारा किये जाने वाले यज्ञ को ही यज्ञ समझते है। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण अध्याय ३ में कहते है कि सृष्टि चक्र के क्रिया रूप होना यज्ञ है। सौरमंडल, ग्रह, नक्षत्र, भूमण्डल (भूमण्डल मे वायु, अग्नि, जल, व्रक्ष, पशु, पक्षी, और समस्त प्रदार्थ), और मनुष्य अपनी क्रिया द्वारा इस यज्ञ में आहुति देते है।

उसी प्रकार अध्याय ४ में भगवान श्रीकृष्ण योग सिद्धि के लिये साधक द्वारा किये जाने वाले कार्यों को यज्ञ कहते है।

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]

Read More

अध्याय