श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच का जो संवाद है वह मनुष्य समुदाय के लिये बहुत ही कल्याणकारी है। गीता में मनुष्य जीवन का उद्देश्य, जीवन यापन कि कला, मनुष्य के कर्तव्य और सुख दुःख के बन्धन से मुक्ति पाकर, किस प्रकार परमानन्द परमात्मा कि प्राप्ती की जा सकती है, इसका विस्तार से वर्णन किया गया है।

गीता का अध्यन, विवेचन और आत्मसात करनेसे मनुष्य भयंकर से भयंकर परिस्थितिमें भी अपने मनुष्य जन्म के ध्येय को सुगमता पूर्वक सिद्ध कर लेता है।

श्रीमद भागवत गीता के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक का प्रथम शब्द धर्म है। और यह ही श्रीमद भागवत गीता की, मनुष्य के लिये मूल शिक्षा हैं।

अध्याय १

क्युकि भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच का संवाद किसी प्रस्थिति और सन्दर्भ में हुआ है, इसलिये उस प्रस्थिति और सन्दर्भ के परिपेक्ष के लिये महर्षि वेद व्यास ने श्रीमद भागवत गीता का आरम्भ धृतराष्ट्र के उवाच से किया है। अतः उस परिपेक्ष को जानना, समझना अत्यन्त आवश्यक है।

मनुष्य जब संसार और संसार के सम्बंध को लेकर आसक्त हो जाता है, तब उसका कल्याण किस में हैं और उसका अपने धर्म (कर्त्तव्य) क्या है इसका ज्ञान नहीं रहता।

अर्जुन को भी अपने सम्बंधों को लेकर, किस प्रकार मुड़ता छा जाती है, इस का वर्णन इस अध्याय में हुआ है। मुड़ता के वश वह युद्ध करने से इन्कार कर देते हैं।

अध्याय २

भगवान् श्रीकृष्ण के लिये एक विकट परिस्थिति उत्पन्न होती है, जब अर्जुन युद्ध करने से स्पष्ट मना कर देते है। ऐसी अवस्था में उनका केवल एक ही उद्धेश्य होता है कि, वह पुनः अर्जुन को युद्ध करने के लिये प्रेरित करे। क्योकि भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन युद्ध में खड़े थे, इसलिये भगवान् श्रीकृष्ण चाहते थे की यह कार्य शीघ्रता से पूर्ण हो।

भगवान् श्रीकृष्ण इस अध्याय में तीन प्रकार से अर्जुन को युद्ध करने के लिये प्ररित करने का प्रयत्न करते हैं।

सर्व प्रथम क्योंकि अर्जुन को संबंधियों के मृत्यु को लेकर भय था, इसलिये उसको दूर करने के लिये वह शरीर और शरीरी के भेद का तत्व ज्ञान देते हैं, और युद्ध करने के लिये कहते हैं।

उसके बाद समाजिक दृष्टि से युद्ध करना आवश्यक है,  यह उनका दूसरा प्रयत्न होता है।

तीसरे चरण में भगवान् श्रीकृष्ण कामना का त्याग कर के अपने स्वधर्म का पालन करने को कहते हैं। कामना के त्याग से ही मनुष्य के अन्त:करण में समता आती है। समता ही योग है। इन्द्रियों के विषय में रस ही निर्वाण ब्रह्मा की प्राप्ति में बाधा है। इस रस का त्याग किस प्रकार हो। योग में स्थित साधक के क्या लक्षण होते है, इस का वर्णन भगवान् श्रीकृष्ण इस अध्याय में करते है।

अध्याय 3

तत्व ज्ञान से समता की प्राप्ति अथवा कामना का त्याग कर स्वधर्म का पालन करते हुये समता प्राप्ति को अर्जुन समझ नहीं पाते। क्योंकि उनमें युद्ध न करने का भाव था,  इसलिये वह ज्ञान और कर्म को अलग-अलग फल वाला मानते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण इस भेद का निवारण करते हैं और बताते हैं कि मनुष्य कल्याण में कर्त्तव्यों की अनिवार्यता है।

सृष्टि चक्र रूपी यज्ञ सिद्धांत को सुरक्षित रखने के लिये मनुष्य को धर्म (कर्त्तव्य) का पालन करना चाहिये, इसका वर्णन करते हैं। श्रेष्ठ पुरुष निश्चित रूप से, कर्तव्य का पालन करते हैं, क्योंकि साधारण मनुष्य उनका अनुसरण करते हैं। योग सिद्धी के लिये मनुष्य को कामना और अहंकार का त्याग करना चाहिये।

अध्याय ४

अध्याय ४ में भगवान श्रीकृष्ण योग की परम्परा और दिव्यता का वर्णन करते हुऐ अर्जुन को पूर्व में हुये दिव्य पुरषों का अनुसरण करने को कहते है। साथ ही कर्मों का तत्व क्या है और कर्मों से निर्लिप्त किस प्रकार रहना है, इसका ज्ञान देते है।

भगवान श्रीकृष्ण ने अध्याय ३ में सृष्टि चक्र रूपी यज्ञ का ज्ञान देते है। और उस यज्ञ में मनुष्य की आहुति की अनिवार्यता का वर्णन करते है। अब इस अध्याय में मनुष्य के स्वयं के शरीर से होने वाले कार्यों को यज्ञ से तुलना करते है और उनके प्रकार बताते है। मनुष्य द्वारा अनेक प्रकार से जो यज्ञ किये जाते है, उनमें से ज्ञानयज्ञ को श्रेष्ठ बताते है। और इस प्रकार वह अर्जुन को कहते है कि तुम तत्व ज्ञान को प्राप्त कर योग सिद्धि के लिये यज्ञ करो।

प्राय मनुष्य हवन कुण्ड में अग्नि के दुवारा किये जाने वाले यज्ञ को ही यज्ञ समझते है। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण अध्याय ३ में कहते है कि सृष्टि चक्र के क्रिया रूप होना यज्ञ है। सौरमंडल, ग्रह, नक्षत्र, भूमण्डल (भूमण्डल मे वायु, अग्नि, जल, व्रक्ष, पशु, पक्षी, और समस्त प्रदार्थ), और मनुष्य अपनी क्रिया द्वारा इस यज्ञ में आहुति देते है।

उसी प्रकार अध्याय ४ में भगवान श्रीकृष्ण योग सिद्धि के लिये साधक द्वारा किये जाने वाले कार्यों को यज्ञ कहते है।

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

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