श्रीमद भगवद गीता : अध्याय १

इस अध्याय में दोनों ही पक्ष (पाण्डव और कौरव) में युद्ध के लिये कौन-कौन योद्धा सम्मिलित हुये है। और सभी योद्धा किस प्रकार उत्साहित जान पड़ते है इसका वर्णन हुआ है।
अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से युद्ध का निरक्षण करने की इच्छा से रथ को युद्ध क्षेत्र के मध्य में लेजाने की प्राथना करते है। “निरीक्षण” शब्द से अर्जुन के शूरवीरता और आत्मविश्वास का प्रदर्शन होता है।

युद्ध में प्रतिपक्ष में उपस्थित सम्बन्धियों को देख अर्जुन के अन्तःकरण में अनेक प्रकार के विकार और विषमता उत्त्पन्न हो जाती और वह व्यथित हो युद्ध करने से इंकार कर देते है।

श्रीमद भागवत गीता के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक धृतराष्ट्र के उवाच से होता है और उनके वाक्य का प्रथम शब्द “धर्म” है। कारण की इस युद्ध को धर्म युद्ध कहा गया है। दोनों ही पक्ष धर्म की रक्षा के लिये युद्ध में आमने सामने उपस्थित हुये है, परन्तु धर्म केवल एक पक्ष के साथ है। यह युद्ध किस परिस्थिति में हो रहा है और धर्म किस पक्ष के साथ है इस परिपेक्ष को पाठक को अच्छे से विचार कर लेना चाहिये।
प्राय लोगो का मानना है कि यह युद्ध दो परिवारों के बीच है और पांडवों ने युद्ध उन पर हुये अन्याय के लिये किया था। परन्तु युद्ध का मुख्य कारण समाज में बढ़ते अधर्म का है और उन पर हुये अन्याय केवल उदाहरण मात्र है।
पांडवों को युद्ध परिस्थिति वश प्राप्त हुआ था। युद्ध करना उनका प्रथम विकल्प नहीं था।

१ - ११ पाण्डव और कौरव के मुख्य महारथियों के नामों का वर्णन

||१-१|| धृतराष्ट्र ने कहा – हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्र हुए युद्ध के इच्छुक मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?

||१-२|| संजय ने कहा – वज्रव्यूह-से खड़ी हुई पाण्डव-सेना को देखकर राजा दुर्योधन आचार्य द्रोण के पास जाकर यह वचन कहे।

||१-३|| हे आचार्य! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र (धृष्टद्द्युम्न) के द्वारा वज्रव्यूह-से खड़ी की गयी पाण्डु पुत्रों की इस महती सेना को देखिये।

१२-१९ दोनों सेनाओं के शंखनाद का वर्णन

।।१-१२।। उस समय कुरुवृद्ध प्रतापी पितामह भीष्म ने दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुये सिंह के समान गरज कर उच्च स्वर में शंखध्वनि की।

।। १-२०।। हे महीपते! धृतराष्ट्र! इस प्रकार अब युद्ध प्रारम्भ होने वाला ही था कि उस समय कपिध्वज अर्जुन ने धृतराष्ट्र के पुत्रों को व्यवस्थितरूप से सामने खड़े हुए देखकर अपना गाण्डीव धनुष उठा लिया और अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण से ये वचन बोले।

२१-२७ अर्जुन के दुवारा सेना निरीक्षण का अनुरोध

||१-२१|| ||१-२२|| अर्जुन ने कहा: हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में आप खड़ा कीजिये। जिस से मैं युद्ध की इच्छा से खड़े इन लोगों का निरीक्षण कर सकूँ और यह ज्ञात कर सकूँ कि इस युद्ध में मुझे किन-किनके साथ युद्ध करना है।

||१-२३|| दुर्बुद्धि धृतराष्ट्र के पुत्रों का युद्ध में प्रिय करने की इच्छावाले जो ये राजालोग इस सेना में एकत्र हुए हैं, उन युद्ध करने को उतावले हुए, सबको मैं देख तो लूँ।

||१- २४|| ||१- २५|| संजय ने कहा: हे भारत (धृतराष्ट्र)! अर्जुन के इस प्रकार कहने पर अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के मध्यभाग में पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के समुख उत्तम रथ को खड़ा करके कहा कि, “हे पार्थ यहाँ एकत्र हुये कौरवों को देखो”।

||१-२६|| उसके बाद पृथानन्दन अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित पिता के भाइयों, पितामहों, आचार्यों, मामाओं, भाइयों, पुत्रों, पौत्रों, मित्रों, ससुरों और सुहृदों को भी देखा।

||१-२७|| इस प्रकार अपनी-अपनी जगह पर स्थित उन सम्पूर्ण बन्धु-बान्धवों को खड़े देखकर कुन्ती पुत्र अर्जुन का मन अत्यन्त करुणा से भर गया और विषादयुक्त होकर ये वचन बोले।

२८-४७ सम्बन्धियों को देख व्यथित होकर अर्जुन का शोक भरे वचनों को कहना

||१-२८|| ||१-२९|| अर्जुन ने कहा: हे कृष्ण! युद्ध की इच्छा रखकर उपस्थित हुए इन स्वजनों को देखकर मेरे अंग शिथिल हुये जाते हैं, मुख सूख रहा है, मेरे शरीर में कँपकँपी हो रहीं है एवं रोंगटे खड़े हो रहे हैं। मेरे हाथ से गाण्डीव (धनुष) गिर रहा है और त्वचा जल रही है। मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है, और मैं खड़े रहने में भी असमर्थ हो रहा हूँ।

||१-३०||  हे केशव! मैं लक्षणों (शकुनों) को भी विपरीत ही देख रहा हूँ, और युद्ध में (आहवे) अपने स्वजनों को मारकर कोई कल्याण भी नहीं देखता हूँ। ||१-३१||

||१-३२|| हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ, न राज्य और न सुखों को ही चाहता हूँ। हे गोविन्द! हमलोगों को राज्य से अथवा भोगों से क्या लाभ? अथवा जीने से भी क्या प्रयोजन है?

||१-३३|| हमें जिनके लिये राज्य, भोग और सुखादि की इच्छा है, वे ही ये सब धन के लिये अपने प्राणों की आशा का त्याग करके युद्ध में खड़े हैं।

||१-३४|| ||१-३५|| वे लोग गुरुजन, ताऊ, चाचा, पुत्र, पितामह, श्वसुर, पोते, श्यालक तथा अन्य सम्बन्धी हैं। मुझपर प्रहार करने पर भी मैं इनको मारना नहीं चाहता। हे मधुसूदन! मुझे त्रिलोकी का राज्य मिलता हो, तो भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वीके लिये तो कहना ही क्या है।

||१-३६|| हे जनार्दन! इन धृतराष्ट्र के पुत्रों एवम सम्बन्धियों को मारकर हमलोगों को क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें केवल पाप ही लगेगा।

||१-३७|| हे माधव!  इसलिये अपने बान्धव इन धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारना हमारे लिए योग्य नहीं है, क्योंकि स्वजनों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?

||१-३८|| यद्यपि लोभ के कारण जिनका विवेक-विचार लुप्त हो गया है, ऐसे ये कुल का नाश करने से होनेवाले दोष को और मित्रों के साथ द्वेष करने से होनेवाले पाप को नहीं देखते हैं।

||१-३९|| परन्तु, हे जनार्दन! कुल का नाश करने से होनेवाले दोष को ठीक-ठीक जानने वाले हम लोगों, इस पाप से विरत होने का विचार क्यों न करें?

||१- ४०|| कुल का क्षय होने पर सदा से चलते आये कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं और धर्म का नाश होनेपर (बचे हुए) सम्पूर्ण कुल को अधर्म दबा लेता है।

||१-४१|| हे कृष्ण! अधर्म के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं; (और) हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है।

||१- ४२|| यह वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने का कारण बनता है। श्राद्ध और तर्पण की क्रिया से वंचित इनके (कुलघातियों के) पितर भी अपने स्थान से गिर जाते हैं।

||१-४३|| इन वर्णसंकर कारक दोषों से कुलघातियों के सदा से चलते आये कुलधर्म और जातिधर्म नष्ट हो जाते हैं।

||१-४४|| हे जनार्दन! हमने सुना है जिनके कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, उन मनुष्यों का अनियत काल तक नरक में वास होता है।

||१- ४५|| अहो! यह बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि हमलोग बड़ा भारी पाप करने का निश्चय कर बैठे हैं, जो कि इस राज्यसुख के लोभ से अपने स्वजनों को मारने के लिये तैयार हो गये हैं!

||१-४६|| अगर ये हाथों में शस्त्र-अस्त्र लिये हुए धृतराष्ट्र के पक्षपाती लोग युद्धभूमि में मुझ शस्त्ररहित और प्रतिकार न करने वाले को मार भी दें, तो भी वह मेरे लिये हितकारक होगा।

||१-४७|| संजय ने कहा: युद्धभूमि में शोक से उद्विग्न मनवाले अर्जुन ने इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष को त्याग कर, रथके मध्यभाग में बैठ गये।

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