श्रीमद भगवद गीता : ०१

अध्याय १ श्लोक १

 

धर्म क्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किम अकुर्वत संजय ॥१-

 

धृतराष्ट्र ने कहा – हे संजय! धर्म भूमि कुरुक्षेत्र में एकत्र हुए युद्ध के इच्छुक मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया? ||१-१||

 

अध्याय १ श्लोक १: धृतराष्ट्र ने कहा

राजा का कर्तव्य है- अपने राज्य को बाहरी आक्रमण से रक्षा करना, राज्य के नागरिकों के बीच सुहृद बना रहे, राज्य मे सम्पन्नता हो, और नागरिक को न्याय मिले। इस के लिये राजा बाहुबल, ज्ञान और विवेक होना चाहिये।

राजा पाण्डव द्वारा भूल से ऋषि कि हत्या होने पर, प्रायश्चित के लिये राज्य का त्याग करके वन जाने का निश्चय किया। वन जाने के लिये उन्होंने अपने ज्येष्ठ भ्राता धृतराष्ट्र को राज्य का देख भाल करने के लिये कहा। परन्तु धृतराष्ट्र अंधे होने के कारण राजा होने के योग्य नही थे।अतः राजा पाण्डव ने देश से अधिक प्राथमिकता अपने परिवार को दी और अकर्तव्य का पालन किया।

शारीरिक रूप से अंधे होने के बावजूद धृतराष्ट्र में राजा बने रहने की लालसा थी। राज्य का सुख भोगने , एवं पुत्र मोह में इतने आसक्त थे, कि उनका विवेक भी पूर्ण रूप से ढाका हुआ था। अर्थात विवेक से भी वह अंधे थे। विवेक हीन होने के कारण उनको धर्म और अधर्म का कोई ज्ञान न था। राजा बने रहने के लिये उन्होंने हर वो कार्य किया जो अधर्म था और उनकी असुर प्रवर्ती को दर्शाता है।

धृतराष्ट्र और दुयोर्धन ने छल पूर्वक पाण्डु पुत्रों से उनका राज्य छीना था,  परंतु  विवेक हीन होने के कारण  धृतराष्ट्र और दुयोर्धन के लिये वह युक्ति पूर्वक किया गया कृत्य था जिसको वह धर्मसंगत मानते थे।

उसी विवेक हीनता के कारण पाण्डु पुत्रों का अपना राज्य माँगना उनको अधर्म लगता था।

धृतराष्ट्र और दुयोर्धन का यह विश्वास था कि साम, दाम, दण्ड, भेद, जिस प्रकार हो देश पर राज्य करना मनुष्य का अधिकार है। उनका यह मानना था कि वह शक्ति से पाण्डु पुत्रों पर विजय प्राप्त कर सकते है।  अतः युद्ध करने की इच्छा और निश्चय पाण्डु पुत्रों का है वह केवल अपनी सुरक्षा के लिये युद्ध कर रहे है।

इसी कारण से धृतराष्ट्र ने युद्ध की इच्छा अपने और पाण्डु पुत्रों मे समान रूप से देखी।

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