श्रीमद भगवद गीता : ०२

अध्याय १ श्लोक २

दृष्टा तु, पाण्डवानीकम्, व्यूढम्, दुर्योधनः, तदा,
आचार्यम्, उपसग्म्य, राजा, वचनम्, अब्रवीत्।।१-२।।

 

अध्याय १ श्लोक २ संजय ने कहा –

वज्रव्यूह-से खड़ी हुई पाण्डव-सेना को देखकर राजा दुर्योधन आचार्य द्रोण के पास जाकर यह वचन कहे। ||१-२||

 

धृतराष्ट्र का सबसे अधिक मोह दुर्योधन में ही था। युद्ध के होने में भी मुख्य हेतु दुर्योधन ही था और क्युकी धृतराष्ट्र को विश्वास था कि विजय दुयोर्धन की ही होगी अतः संजयने दुर्योधनके लिये ‘राजा’  शब्दका प्रयोग किया है।

धृतराष्ट्र की महत्वाकांक्षाओं, का प्रतिबिम्ब दुयोर्धन था। धृतराष्ट्र अपनी कामनाओं की पूर्ति दुयोर्धन में पूर्ण होती देखते थे।

दुयोर्धन समस्त राज्य पर अपना ही अधिकार मानता था|

बाल्यावस्था से ही दुयोर्धन में पाण्डवों के प्रति वैमनस्य का भाव रखता था। स्वयं के राजा होने मे अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी वह पांडवों को मानता था। अतः बाल्यकाल से ही दुयोर्धन ने पाण्डवों के जीवन पर आक्रमण करने आरम्भ कर दिये थे।

अतः दुर्योधन का मुख्य उद्देश्य राज्य-प्राप्ति का ही था, फिर वह राज्य-प्राप्ति चाहे अधर्म से हो या अन्याय से हो, या निषिद्ध रीति से। किसी भी तरह से हमें राज्य मिलना चाहिये – ऐसा उसका भाव था और कार्य था।

पहले श्लोक मे कहे गये धर्म के सिद्धांत के विरुद्ध उसका आचरण था। केवल दुर्योधन ही अधर्म का आचरण करने वाला था एसा नहीं था। अपितु उसके प्रभाव से पूरे समाज में और देश में अधर्म की वृद्धि हो गई थी।

आचार्य द्रोणाचार्य

द्रोणाचार्य का स्वधर्म शिक्षा का है। अर्थात उनका समाजिक कर्तव्य अन्य मनुष्यों को शिक्षा या विद्या प्रदान करने का है। इसी कार्य से उनका जीवन निर्वाह हेतु अर्थ की प्राप्ति भी होती थी। आचार्य या शिक्षक का धर्म यह भी है कि वह अपने शिष्यों में किसी प्रकार का भेद भाव न करें।

आचार्य की निष्ठा केवल अपने स्वधर्म (शिक्षा प्रदान करना) के प्रति होती हैं। गुरु दक्षिणा में जब द्रोणाचार्य को अपने शिष्यों की सहयता से द्रुपद का आधा राज्य अपने पुत्र के लिये भी मिल गया था, जो उसके राज्य हेतु पर्याप्त था। फिर भी किसी निष्ठा के कारण द्रोणाचार्य ने दुर्योधन के अधर्म का साथ दिया।

एकलव्य को धनुर्विद्या प्रदान ना करना आचार्य द्रोणाचार्य के शिक्षक धर्म के विरुद्ध था। इसके अलावा युद्ध से पहले और युद्ध के दौरान, अनेक बार आचार्य द्रोणाचार्य ने अधर्म किया या साथ दिया।

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