भावार्थ:
अध्याय १ श्लोक ३६ – अर्जुन ने कहा:
धृतराष्ट्र के पुत्र दुवरा किये गए आततायी कृत की स्मृति हो आने पर भी अर्जुन के मन में अनिश्चता के भाव रहते है। अर्जुन कहते है कि, धृतराष्ट्रके पुत्र और अन्य सम्बन्धियों को मारकर विजय प्राप्त करनेसे हमें क्या प्रसन्नता होगी? कारण की हम में जो आक्रोश है, उसके वश होकर हम इनको मार भी दें, तो आक्रोश का वेग शान्त होनेपर हमें रोना ही पड़ेगा अर्थात् चित्तमें उनकी मृत्युका शोक सताता रहेगा। अतः ऐसी स्थितिमें हमें कभी प्रसन्नता हो सकती है क्या?
साथ ही वेंदना वश धर्म के पालन से भ्रमित हो कर अर्जुन कहते है कि आततायी को मारकर हमें केवल पाप ही लगेगा। कारण की, इन आततायी के साथ हम अपने अन्य सम्बन्धियों को भी मारेंगे।
श्लोक के सन्दर्भ मे:
दुर्योधन और उनके भाईओं ने बचपन से ही अनेक प्रकार से पांडव पुत्रो पर अत्यचार किये थे।
भीमसेनको जहर खिलाकर जलमें फेंक देना।
शिक्षा पूर्ण होने पर गुरु द्वारा पर्तिस्पर्धा में हाथमें शस्त्र लेकर पाण्डवोंको मारने की कोशिश।
पाण्डवोंको लाक्षागृहमें आग लगाकर मारना चाहा था।
द्यूतक्रीड़ामें छल-कपट करके उन्होंने पाण्डवोंका धन और राज्य हर लिया था।
द्रौपदीको भरी सभामें लाकर दुर्योधन ने अनेक प्रकार से बड़ा अपमान किया था और स्त्री मर्यादा का हनन करने की कोशिश की।
और दुर्योधनादिकी प्रेरणासे जयद्रथ द्रौपदीको हरकर ले गया था।
आततायी होनेसे ये दुर्योधन आदि मारने के लायक हैं ही और जो इनका साथ देने वाले है उनको मारना भी धर्म संगत है।
सनातन धर्म पालन हेतु:
समाज में आततायी को मृत्युदंड देना धर्म संगत है।
परन्तु समाज में दंड केवल वह मनुष्य ही दे सकता है जिसको इसका अधिकार मिला है। आज के समय मे यह अधिकार न्यायालय को मिला है। पूर्व काल में यह अधिकार राजा को था।
एक साधारण मनुष्य के लिये किसी भी प्रकार की हिंसा करना पाप है।
परन्तु जिनका स्वधर्म ही समाज मे किसी प्रकार का अत्याचार ना हो, ऐसा दायित्व है। उनको अगर समाज कल्याण हेतु किसी प्रकार की हिंसा अत्याचारियों या उनके सहयोगियों पर करनी पड़े तो वह धर्म संगत है।
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