श्रीमद भगवद गीता : ३८

अध्याय १ श्लोक ३८

 

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।

कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।१-३८।।

 

यद्यपि लोभ के कारण जिनका विवेक-विचार लुप्त हो गया है, ऐसे ये कुल का नाश करने से होनेवाले दोष को और मित्रों के साथ द्वेष करने से होनेवाले पाप को नहीं देखते हैं। ||१-३८||

 

भावार्थ:

अध्याय १ श्लोक ३८- अर्जुन ने कहा:

निसंदेह सत्ता और धन की लोभ-वृत्तिके कारण दुर्योधनादिकी विवेक-शक्ति लुप्त हो गयी है, जिससे वे यह देखने में असमर्थ है कि इस युद्ध के कारण सम्पूर्ण सामाजिक ढाँचे का कितना विनाश होने वाला है। अन्तःकरणमें लोभ छा जानेके कारण इनको राज्य-ही-राज्य दीख रहा है। युद्ध में अपने ही स्वजनों की हत्याओं की क्रूरता को भी वे समझ नहीं पा रहे है है। कुलका नाश करनेसे कितना भयंकर पाप होगा, वह इनको दीख ही नहीं रहा है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

अर्जुन के कथन से लगता है कि उन्होंने अपना विवेक खोया नहीं था और इस युद्ध के द्वारा होने वाले भावी सामाजिक विनाश को वह स्पष्ट देख रहे थे।

 

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