श्रीमद भगवद गीता : ०१

योग सिद्धांत अव्यय है और सृष्टि के सर्ग से स्थित है।

 

श्री भगवानुवाच

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।

विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।४-१।।

 

श्री भगवान् ने कहा: मैंने इस अव्यय योग को विवस्वान् (सूर्य देवता) से कहा; विवस्वान् ने मनु से कहा; मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा। ||४-१||

 

श्लोक के सन्दर्भ मे:

समता में स्थित होना ही योग में स्थित होना अथवा योग का सिद्ध होना है।

समता मे स्थित होना ही सुख-दुःख के बन्धन से मुक्ति है; परमानन्द की प्राप्ति हैं; जन्म मरण रुपी भय से मोक्ष हैं।

समता मे स्थित होने कि जो प्रक्रिया है उसको योग कहा गया है।

भावार्थ:

इस श्लोक में योग को अव्यय गुण से परिभाषित किया है। अव्यय का अर्थ है कि यह योग रूपी सिद्धान्त का कभी व्यय नहीं होता, निष्फल नहीं होता। अर्थात इस योग रूपी सिद्धान्त का पालन, मनुष्य के लिये निश्चित रूप से कल्याण करने वाला है। किसी भी परिस्थिति में, किसी भी काल में इस का पालन करने से, मनुष्य का कल्याण होता है।

इस सिद्धान्त का पालन मनुष्य का कर्तव्य होने से इसको मनुष्य का धर्म भी कहा गया है। और क्योकि इस धर्म (सिद्धान्त का कर्तव्य रूप से पालन) का कभी व्यय नहीं होता इसलिये इस धर्म को सनातन भी कहा गया है। अतः इस सनातन धर्म का पालन करने वाले मनुष्य का कल्याण निश्चित रूप से होता है।

अध्याय ३ श्लोक १० में ब्रह्मा जी ने यज्ञ के लिए सभी को अपने-अपने धर्म का पालन करने को कहा। यज्ञ का पालन करना ही योग का पालन करना है।

धर्म का पालन योग रूप से करने का प्रथम ज्ञान मैंने (परमात्मतत्व रूप से) सूर्य को दिया था।  इस प्रकार यह योग ज्ञान (सनातन धर्म ज्ञान) सूर्य के द्वारा मनु को प्राप्त हुआ और फिर मनु से इक्ष्वाकु को प्राप्त हुआ। और इक्ष्वाकु से मनुष्य को प्राप्त हुआ।

सर्वप्रथम सूर्य को प्राप्त होने का कारण क्या है?

सृष्टिमें सर्वप्रथम सूर्यकी उत्पत्ति हुई, फिर समस्त लोक की उत्पति में सूर्य सहायक हुए। सबको उत्पन्न करनेवाले सूर्य को सर्वप्रथम योग का उपदेश देने का अभिप्राय यह है कि, उनसे उत्त्पन्न सम्पूर्ण सृष्टि सूर्य का अनुसरण करते हुये योग का पालन करे।

सूर्य ही पृथ्वी और पृथ्वी पर जीवन की ऊर्जा स्त्रोत है, और इस ऊर्जा से ही प्रकृति के समस्त कार्य होते है। अतः कार्य करने का योग रूप ज्ञान सूर्य के द्वारा ही समस्त जीव को प्राप्त होता है।

जैसे सूर्य सदा चलते ही रहते हैं (अर्थात् कर्म करते ही रहते हैं) और सबको प्रकाशित करने पर भी स्वयं निर्लिप्त रहते हैं, ऐसे ही साधकों को भी प्राप्त परिस्थितिके अनुसार अपने कर्तव्य-कर्मोंका पालन करते रहना चाहिये और कार्य से लिप्त नहीं होना चाहिये।

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