श्रीमद भगवद गीता : ११

श्रेष्ठ मनुष्य परमात्मा के मनुष्य रूप के आचरण का अनुसरण करता है।

 

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।४-११।।

 

हे पृथानन्दन! जो साधक जिस भाव से मेरी (परमात्मा की) शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ; श्रेष्ठ मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग (आचरण) का ही अनुसरण करते है। ||४-११||

 

भावार्थ:

मनुष्य के दो भाव होते है। एक परमात्मा प्राप्ति का भाव और दूसरा भौतिक विषयों की प्राप्ति का भाव।

जिस मनुष्य में परमात्मा प्राप्ति का भाव होता है, निश्चित बुद्धि होती है, वह योग साधना करता है। जिस मनुष्य में भौतिक विषयों में आसक्ति होती है, वह अपनी कामना पूर्ति में ही लगे रहते है।

अध्याय ४ श्लोक ७ में भगवान श्रीकृष्ण ने वर्णन किया है कि, पूर्व काल में परमात्मा अनेक बार दिव्य पुरषों (भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण, भगवान परशुराम, राजा जनक आदि) के रूप में पृथ्वी पर जन्म ले चुके है। दिव्य पुरषों ने अपने मनुष्य जीवन काल में पूर्ण रूप से मनुष्य धर्म का पालन किया है (अध्याय ३ श्लोक २३)। जिससे की अन्य मनुष्य उन दिव्य पुरषों का अनुसरण करते हुये अपना और समाज का कल्याण करे।

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि, जो मनुष्य परमात्मा प्राप्ति का भाव रखता है, वह श्रेष्ठ मनुष्य है। और वह श्रेष्ठ मनुष्य सब प्रकार से उन दिव्य पुरुष का अनुसरण करता है।

अतः जो श्रेष्ठ मनुष्य परमात्मा प्राप्ति के लिये योग साधना करता है, मनुष्य धर्म का पालन करता है, उसका योग सिद्ध होता है और परमात्मा की प्राप्ति होती है। जो सामान्य मनुष्य भौतिक विषयों में आसक्त है, वह संसार के सुख-दुःख रूपी बन्धन में बाँधा रहता है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

सुख-दुःख रूपी बन्धन से मुक्त होना ही परमात्मा की प्राप्ति है।

इस श्लोक में आश्रय का अर्थ है कामना की पूर्ति। जिसमें सुख-दुःख रूपी बन्धन से मुक्त होने (परमात्मा प्राप्ति) की कामना होती है और उसके लिये साधना करता है, वह मोक्ष (परमान्द) को प्राप्त होता है। जो मनुष्य संसारिक विषयों में सुख देखता है, वह भौतिक विषयों को प्राप्त करने के लिये कार्य करता है और सुख-दुःख चक्र में बाँधा रहता है।

 

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