श्रीमद भगवद गीता : १४

स्पृहा रहित, कर्मों से लिप्त रहित, तत्वयज्ञ योगी कर्मोंसे नहीं बँधता।

 

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।

इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ।।४-१४।।

 

कारण कि कर्म मुझे लिप्त नहीं करते; न मुझे कर्मफल में स्पृहा है। मेरे इस योग को जो तत्त्वसे जान लेता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता। ||४-१४||

भावार्थ:

पूर्व श्लोक (अध्याय ४ श्लोक १३) में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि मुझ में कार्य करने की अहंता नहीं होती। कारण की मैं कार्य से अपना कोई सम्बन्ध नहीं मानता और न ही मुझको कर्म फल प्राप्ति की कोई कामना, न ही कर्म फल में प्रियता।

भगवान श्रीकृष्ण पुनः विशेष रूप से कहते है कि जो मनुष्य योग विधि के तत्व को जान लेता है और जान कर उसका पालन करता है, वह भी मेरे समान कर्मों से नहीं बँधता।

योग विधि तत्व है:

कार्य-शरीर से सम्बन्ध विच्छेद, कार्य के फल की कामना नहीं और प्राप्त फल का भोग नहीं।

कर्म से बंधने का कारण है:

कार्य-शरीर से सम्बन्ध मानने से उत्त्पन होने वाली अहंता। कामना पूर्ति को लेकर होने वाले सुख-दुःख। यह सुख-दुःख ही जीवन बंधन है।

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