भावार्थ:
पूर्व श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने कामना से प्रेरित होकर कार्य करने का त्याग कहा। साथ ही कर्म फल का हेतु न बनने की प्रेणना दी।
अब इस श्लोक में कार्य से जो फल प्राप्त है उस फल की आसक्ति का त्याग करने के लिये कहते है। अर्थात फल में किसी प्रकार का लगाव न रखना।
मनुष्य कामना से रहित हो कर जब स्वधर्म, कर्तव्य-कर्म करता है तब उसको प्रकृति से प्रदार्थ, परस्थिति फल स्वरूप में प्राप्त होती है। मनुष्य को उस फल के आश्रित नहीं होना चाहिये। अर्थात कार्य के फल स्वरूप जो प्रकृति प्रदार्थ या परस्थिति प्राप्त होती है, उनसे अपना कोई सम्बन्ध न मानना और उनसे किसी प्रकार का भोग न लेना, राग-द्वेष न करना। और जो मिला, जैसे मिला, जितना मिला उसमें सदा तृप्त रहना ।
कामना, अहंता, फल आसक्ति रहित, फल के आश्रय से रहित, सदा तृप्त रहने वाला योगी संसार के सभी कार्य करता हुआ दिखता तो है, परन्तु उसका अन्तःकरण संसार और संसार के कार्यों से निर्लिप्त रहता है। उसके सभी कार्य अकर्म हो जाते है – बांधने वाले नहीं होते।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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