इस श्लोक में योग की परिकाष्ठा बताई है।
भावार्थ:
यहा शरीर शब्द में ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ समाहित है और अन्तःकरण में मन, बुद्धि और अहंम समाहित है।
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण पुनः अन्तःकरण को नियमित करने को कहते है, और कहते है कि नियमित भी इस प्रकार होना चाहिये कि उसमें किसी प्रकार की आशा भी न रहे।
आशा रहित से पुनः फल में आसक्ति का त्याग बताया है। कार्य सिद्धि, फल प्राप्ति की आशा नहीं होनी चाहिये। मनुष्य जब समाज कल्याण के कार्य करता है तब उसको आशा रहती है कि अन्य लोग (जिनको मुझ से सुख पंहुचा) भी उसको भविष्य में सुख देंगे, मेरा मान-सम्मान करेंगे। उसको आशा रहती है की भविष्य में मेरे को स्वर्ग की प्राप्ति होगी। उसको अपने माने हुए शरीर को लेकर भी कुछ आशा नहीं रहती। भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि साधक के अन्तःकरण में सूक्ष्म रूप से किसी प्रकार की आशा नहीं रहनी चाहिये। कामना का सूक्ष्म रूप आशा है।
जब साधक के अन्तःकरण में शरीर के निर्वाह को लेकर भी किसी प्रकार की आशा नहीं रहती, तब वह आशा से रहित है।
संग्रह का परित्याग – इस श्लोक में राग-द्वेष, विचार और संस्कार का जो संग्रह है उसका परित्याग बताया है। जब भोग का त्याग होता है तब पदार्थ संग्रह का त्याग तो स्वतः हो ही जाता है। पर जो शेष रहता है, वह है, अन्तःकरण में राग-द्वेष रूपी संस्कार का संग्रह। यह राग-द्वेष रूपी संस्कार का संग्रह धीरे-धीरे समाप्त होता है।
इस प्रकार, जब योगी का अन्तःकरण पूर्ण रूप से निर्मल है, तब वह शरीर निर्वाह के लिये कार्य करता हुआ भी पाप को प्राप्त नहीं होता।
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