भावार्थ:
अध्याय १३ श्लोक ६ में वर्णन हुआ है की इच्छा, द्वेष, सुख, दुख रूपी विकार शरीर में प्राण के साथ स्थित है।
इच्छा रहित – मनुष्य की जब तक शरीर में आसक्ति रहती है, तब तक मनुष्य शरीर के सुख की, आराम की इच्छा करता है। शरीर को किसी प्रकार का कष्ट न हो इसका प्रयत्न करता है। शरीर को कष्ट होने पर स्वयं में दुःख का अनुभव करता है। परन्तु जब योगी में, शरीर के प्रति आसक्ति (ममता) का त्याग हो जाता है, तब योगी शरीर को लेकर किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं करता।
सन्तुष्ट – योगी को अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति, लाभ-हानि, मान-अपमान, स्तुति-निन्दा आदि जो कुछ मिलता है, उससे उसके अन्तःकरण में कोई असन्तोष पैदा नहीं होता। वह हर एक परिस्थिति में समान रूप से सन्तुष्ट रहता है। योगी का शरीर जिस स्थिति में भी हो उससे वह सन्तुष्ट रहता है।
ईर्ष्या रहित – शरीर के प्रति आसक्ति (ममता) रहित होने पर योगी अन्य प्राणियों और अपने स्थिति में अन्तर देख कर अन्यों से ईर्ष्या नहीं करता। योगी के कार्य में प्रवृति-निवृति ईर्ष्या, से प्रेरित होकर नहीं होते। योगी सम्पूर्ण प्राणियों और स्वयं की परमात्मा के साथ एकता मानता है। वह जनता है कि जिस प्रकार उसके होने में परमात्मा कारण है उसी प्रकार अन्य प्राणियों के होने में परमात्मा ही कारण है। इसलिये उसका किसी भी प्राणी से किंचिन्मात्र भी ईर्ष्या का भाव नहीं रहता।
द्वन्द्व रहित – अध्याय २ श्लोक ४१ में भगवान श्रीकृष्ण ने मनुष्य को परमात्मा प्राप्ति के लिये निश्चयात्मक बुद्धि करने को कहा है। मनुष्य को संसार का आकर्षण इतना अधिक होता है, की उसमें द्वन्द्व रहता है। मनुष्य कभी संसार से अपना सम्बन्ध जोड़ता है और कभी परमात्मा से। योगी इस द्वन्द्व से रहित होता है। उसके सभी कार्य परमात्मा के लिये होते है।
सिद्धि-असिद्धि में समता – कार्यों की सिद्धि-असिद्धि में योगी, सम भाव रहता है। अर्थात कार्य की सिद्धि अथवा असिद्धि होने से उसमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकार उत्पन्न नहीं होते।
इस प्रकार का योगी संसार के सम्पूर्ण कार्य करता हुआ भी कर्मों से नहीं बांधता।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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