श्रीमद भगवद गीता : २३

योगी के सभी कार्य यज्ञ के लिये होने चाहिये।

 

गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।

यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ।।४.२३।।

 

जो योगी आसक्तिरहित और मुक्त है, जिसकी बुद्धि स्वरूपके ज्ञानमें स्थित है, ऐसे साधक के, केवल यज्ञके लिये कार्य करने पर, उसके सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं। ||४-२३||

 

भावार्थ:

जो योगी पूर्ण रूप से आसक्ति रहित है। जो सभी विषमतओं और विकारों से मुक्त है। जिसकी बुद्धि तत्व ज्ञान में स्थित है। अर्थात जिसमें अहंता का पूर्णतया त्याग हो गया है। जिसमें संसार की कोई महत्ता नहीं रहे गई है, उस योगी के सभी कार्य यज्ञ के लिये होते है, और यज्ञ के लिये कार्य करने पर वह सभी कार्य परमात्मा में विलीन हो जाते हैं। अर्थात संसार से बांधने वाले नहीं होते। सुख-दुःख देने वाले नहीं होते।

अध्याय ४ श्लोक २२ में कर्म बन्धन से मुक्त योगी के गुणों का वर्णन हुआ है। अब इस श्लोक में कुछ ओर गुणों का वर्णन होता है और साथ ही भगवान श्रीकृष्ण यह  स्पष्ट करते है कि मनुष्य के सभी कार्य यज्ञ के लिये होने चाहिये। भगवान श्रीकृष्ण ने ‘केवल’ पद से यज्ञ के लिये कार्य करने पर बल दिया है। निष्क्रिय रहने पर, यज्ञ के लिये कार्य न करने पर, परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती।

 

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