श्रीमद भगवद गीता : २८

द्रव्य-सम्बन्धी, तपोयज्ञ, योगयज्ञ, स्वाध्यायरूप ज्ञान यज्ञ।

 

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।

स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ।।४.२८।।

 

दूसरे कितने ही तीक्ष्ण व्रत करनेवाले प्रयत्नशील साधक द्रव्य-सम्बन्धी यज्ञ करनेवाले हैं, और कितने ही तपोयज्ञ करनेवाले हैं, और दूसरे कितने ही योगयज्ञ करनेवाले हैं, तथा कितने ही स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करनेवाले हैं। ||४-२८||

भावार्थ:

तीक्ष्ण व्रत करने वाले

अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी का अभाव), ब्रहाचर्य और अपरिग्रह (भोग-बुद्धि से संग्रह का आभाव) – ये पाँच ‘यम’ हैं, जिन्हें ‘महाव्रत’ के नामसे कहा गया है। इन व्रतों का सार यही है कि मनुष्य संसारसे विमुख हो जाय।

द्रव्यमय यज्ञ : – सम्पूर्ण पदार्थों को निःस्वार्थभावसे दूसरों की सेवामें लगा देना।

भगवान श्री कृष्ण यहां कहते है कि, प्रकृति प्रदार्थ और शरीर प्रकृति से मिले है और उनको अपना और अपने लिये न मानकर निःस्वार्थभावसे दूसरों की सेवामें लगा देने से द्रव्ययज्ञ सिद्ध हो जाता है।

मनुष्य की प्राय ऐसी मान्यता है की जब उसके पास पर्याप्त धन, प्रदार्थ हो जाय (भोग और संग्रह से अधिक) और जब उसके पास समय हो तभी वह समाज सेवा कर सकता है। परन्तु शरीरादि से भी यज्ञ हो सकता है, अधिक की आवश्यकता नहीं है। जैसे बालक से उतनी ही आशा रखता है, जितना वह कर सकता है, सर्वज्ञ भगवान एवं संसार हमसे हमारी क्षमता से अधिक की आशा कैसे रखेंगे। अतः साधक को जो और जितना प्राप्त हो उसको ही समाज सेवा में लगा देना चाहिये।

तपोयज्ञ : – अपने कर्तव्यके पालन में आनेवाली कठिनाइयों को प्रसन्नता पूर्वक सह लेना।

प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थति, वस्तु, व्यक्ति, आने पर भी साधक प्रसन्तापूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करता रहे- अपने कर्तव्यसे थोड़ा भी विचलित न होना तपोयज्ञ है।

योगयज्ञ : – अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में, निन्दा-स्तुति में, कार्य की सिद्धि-असिद्धि में तथा फल की प्राप्ति-अप्राप्ति में सम रहना।

स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ : – दूसरों के हितके लिये सत-शास्त्रों का पठन-पाठन, नाम-जप आदि करना।

गीता का अध्ययन ‘स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ’ है| गीता के भावों में गहरे उतरकर विचार करना, उसके भावों को समझने की चेष्टा करना आदि सब ‘स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ’ है।

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