श्रीमद भगवद गीता : ३०

यज्ञों द्वारा पापों का नाश होता है।

 

अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।

सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ।।४.३०।।

 

दूसरे नियमित आहार करने वाले (साधक जन) प्राणों को प्राणों में हवन करते हैं। इस प्रकार साधक सभी प्रकार के यज्ञ को जानने वाले हैं, और यज्ञों द्वारा पापों का नाश करने वाले हैं। ||४-३०||

 

भावार्थ:

स्तम्भवृति यज्ञ : – नियमित आहार करते हुए प्राण और अपान को अपने-अपने स्थानों पर रोक देना।

भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि, इस प्रकार जो साधक यज्ञों को जानता है और उनकी साधना करता है, वह सभी प्रकार के कार्यों को करता हुआ भी पाप को प्राप्त नहीं होता।

PREVIOUS                                                                                                                                          NEXT

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]

Read More

अध्याय