श्रीमद भगवद गीता : ३१

यज्ञ शेष (अमृत) का अनुभव ही परमात्मा की प्राप्ति है।

 

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।

नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतो़ऽन्यः कुरुसत्तम ।।४.३१।।

 

हे कुरुवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञसे बचे हुए अमृतका अनुभव करनेवाले सनातन परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होते हैं। यज्ञ न करनेवाले मनुष्यके लिये यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा? ||४-३१||

भावार्थ:

भगवान श्रीकृष्ण ने अध्याय ४ श्लोक २४ से  अध्याय ४ श्लोक ३० में बारह प्रकार के यज्ञों का वर्णन किया है। साधक जब इन यज्ञों को सिद्ध कर लेता है, तब तो उसको ‘यञशिष्ट अमृत’ की प्राप्ति होती है। यज्ञ से जो शेष है वह परमान्द की अनुभूति है, सनातन परब्रहा परमात्मा की प्राप्ति है।

शरीर से सम्बन्ध विछेद होने पर भय जाता रहता है और मनुष्य को अमरता (आंनद) का अनुभव हो जाता है।

आगे भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि जो मनुष्य यज्ञ (समाज कल्याण- योग सिद्धि) के लिये कार्य नहीं करता, उसको यह लोक (मनुष्यलोक) कभी आंनद प्रदान नहीं कर सकता। मनुष्य जब स्वयं के लोक में आंनद की अनुभूति करने में सक्षम नहीं है तब वह अन्य किसी लोक में आंनद को कैसे प्राप्त होगा?

श्लोक के सन्दर्भ मे:

यज्ञ है, समाज और सृष्टि कल्याण के लिए कर्तव्यों को करना। दूसरों के हित के लिये किया जाने वाला कर्म ही कर्तव्य होता है। जो कर्म अपने लिये किया जाता है वह कर्तव्य नहीं होता प्रत्युत कर्ममात्र होता है, जिससे मनुष्य बँधता है।

इसलिये यज्ञ में देना-ही-देना होता है, लेना केवल निर्वाहमात्रके लिये होता है। शरीर यज्ञ करने के लिये समर्थ रहे, इस दृष्टि से शरीर-निर्वाहमात्रके लिये वस्तुओंका उपयोग करना भी यज्ञके अन्तर्गत है। मनुष्य-शरीर यज्ञ के लिये ही है।

सनातन धर्म पालन हेतु:

मनुष्य का जन्म मनुष्यलोक में परब्रहा परमात्मा को प्राप्त करने के लिये हुआ है। अगर मनुष्य अपने जीवन काल में उस उध्श्य को ही प्राप्त नहीं होता तो उसको मनुष्य जीवन का क्या लाभ? जो मनुष्य सृष्टिचक्र (यज्ञ) रूपी सिद्धांत का पालन नहीं करता वह मनुष्य संसार में व्यर्थ ही जीता है। ऐसा अध्याय ३ श्लोक १६ में कहा है। इसलिये मनुष्य को निश्चित रूप से स्वयं के कल्याण के लिये कार्य करना चाहिये।

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