श्रीमद भगवद गीता : ३६

तत्त्वज्ञान की अनुभूति होने पर मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता।

 

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।

सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ।।४.३६।।

 

यदि तुम सब पापियोंसे भी अधिक पापी हो, तो भी तुम तत्त्वज्ञान रूपी नौकाके द्वारा, निःसन्देह ही सम्पूर्ण पाप समुद्रसे अच्छी तरह तर जाओगे। ||४-३६||

भावार्थ:

अर्जुन की चिंता थी के सम्बन्धियों को मार कर वह पाप के भागी बनेंगे। इस चिंता को दूर करने के लिये भगवान श्रीकृष्ण आश्वासन देते है कि तत्वज्ञान प्राप्त करने पर अगर वह (अर्जुन) पापियों से भी अधिक पापी है तो भी ब्रह्म की अनुभूति होने पर वह पाप रहित हो जायगा।

प्रकृति के कार्य शरीर और संसार से सम्बन्ध मानने से सम्पूर्ण पाप होते हैं। तत्वज्ञान होने पर जब इनसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, तो पुराने पाप नष्ट हो जाते है और नये बनते नहीं।

इस विषय (पाप) को लेकर अध्याय २ श्लोक ३८ एवं अध्याय २ श्लोक ५० में भी भगवान श्रीकृष्ण ने समता प्राप्त होने पर पाप का त्याग बताया है।

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