श्रीमद भगवद गीता : ३८

तत्वज्ञान मनुष्य के कल्याण के लिये सबसे सुगम साधन है।

 

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।

तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ।।४.३८।।

 

इस मनुष्यलोक में तत्वज्ञान के समान पवित्र करनेवाला निःसन्देह दूसरा कोई साधन नहीं है। जिसका योग भली-भाँति सिद्ध हो गया है, वह (योगी) उस तत्त्वज्ञान को अवश्य ही स्वयं अपने-आपमें पा लेता है। ||४-३८||

भावार्थ:

संसार की स्वतन्त्र सत्ता को मानने से तथा उससे सुख लेने की इच्छा से ही सम्पूर्ण दोष, और पाप उत्पन्न होते हैं। तत्वज्ञान प्राप्त होने पर जब संसार की स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं रहती, तब सम्पूर्ण कार्य अकर्म हो जाते है और पापों का नाश हो जाता है।

अतः मनुष्य कल्याण के लिये तत्वज्ञान सबसे सुगम साधन है। कारण की तत्वज्ञान ठीक प्रकार से प्राप्त होने पर अन्तःकरण से विषमता, विकार एवं अहंता भाव का त्याग तुरंत हो जाता है। उसमें समय नहीं लगता। मनुष्य में समता आ जाती है जो परमात्मा की प्राप्ति है। क्योंकि इसमें समय नहीं लगता, इसलिये तत्वज्ञान साधना को सुगम साधन कहा गया है।

यह साधना केवल एक बुद्धि का विचार है, अन्तःकरण की अनुभूति है। इसमें किसी प्रकार के शारीरिक क्रिया नहीं है।

अनेक प्रकार के द्रव्यमय यज्ञ, जिनका वर्णन इसी अध्याय ४ श्लोक २५ से अध्याय ४ श्लोक ३० में हुआ है, वह भी योग को सिद्ध करने वाले साधन है। क्योंकि यह योग साधन क्रिया रूप है, इसलिये इनमें समय लगता है। परन्तु इन योग साधन से भी योग की सिद्धि होती है।

भगवान श्रीकृष्ण पुनः स्पष्ट करते है की अन्य साधनाओं से भी जिसका योग सिद्ध है, उसको तत्वज्ञान स्वतः ही प्राप्त हो जाता है और वह विषमता, विकार एवं अहंता रहित हो जाता है।

द्रव्यमय यज्ञ द्वारा योग सिद्धि में अंततः तत्व ज्ञान की प्राप्ति होती है और उससे प्राप्त होती है परम् शान्ति। इस के विपरीत तत्व ज्ञान प्राप्त होने पर प्राप्त होती है परम् शान्ति और योग सिद्ध होता है।

परन्तु इन दोनों प्रकार के साधना में समाज-संसार के कार्यों-कर्तव्यों का त्याग नहीं है। वह तो निश्चित रूप से करने ही है।

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