भावार्थ:
पूर्व श्लोक (अध्याय ४ श्लोक ३८) में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि मनुष्य के कल्याण के लिये तत्वज्ञान प्राप्ति सबसे सुगम साधन है। भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में कहते है कि जो मनुष्य परमात्मा प्राप्ति के लिए तत्परता लगा हुआ है। जो पूर्णरूप से श्रद्धावान् है और जिसने अन्तःकरण को सयंमित किया हुआ है उसको तत्वज्ञान की प्राप्ति सुगमता से हो जाती है।
तत्वज्ञान की प्राप्ति होने पर अविलम्ब उसको परम् शान्ति के रूप में परमात्मतत्व की अनुभूति होती है। अर्थात जन्म-मरण रूप संसार चक्र से वह छूट जाता है।
श्रद्धावान मनुष्य: – संसारिक मनुष्य, में प्रकृति/संसार के प्रति आकर्षण, अहंता, महंता होती है। इसके विपरीत, परमात्मतत्व में आकर्षण, महंता का अनुभव न होते हुये भी परमात्मतत्व में आकर्षण, महंता का विचार करना ‘श्रद्धा’ है।
मनुष्य की अहंता कि सभी कार्यों को “मैं” करता हूँ का त्याग करके, ऐसा विचार करना कि सभी कार्यों का कारण परमात्मतत्व है और शरीर केवल निमित मात्र है – ‘श्रद्धा’ है।
जो मनुष्य परमात्मा (समता) प्राप्ति के लिये निश्चित बुद्धि है, वह ही इस प्रकार की श्रद्धा कर सकता है, अन्य नहीं।
संसार से विमुख और परमात्मा के समुख होने के लिये केवल अन्तःकरण को नियमित करना आवश्यक है।
श्लोक के सन्दर्भ मे:
इस प्रकार की श्रद्धा परमात्मा के प्रति होना ही भक्ति है। भक्ति पूर्ण मनुष्य अपने माने हुए शरीर की महंता नहीं मानता और वह मानता है की इस शरीर से सब कार्य भगवत कृपा से हो रहे है और उनके लिये ही हो रहे है।
इस श्लोक में श्रद्धा से यह तात्पर्य भी है कि भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को स्वयं के प्रति श्रद्धा रखने के लिये कहते है। कारण की, जब तक अर्जुन को तत्व ज्ञान की अनुभूति नहीं होती, तब तक वह भगवान श्रीकृष्ण के कथन को ही सत्य मान कर ऐसा विचार करे की सभी कार्यों का कारण परमात्मतत्व है और वह स्वयं (अर्जुन) नहीं। और ऐसा विचार करके युद्ध करे।
कारण कि अर्जुन को शोक था कि उसके द्वारा उसके सम्बन्धियों का वध होगा।
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