भावार्थ:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को अज, अव्यय और ईश्वर – इन तीन पद से परिभाषित किया है। यह गुण शरीर रूप श्रीकृष्ण के नहीं है अपितु परमात्मतत्व के है।
‘वैष्णवी माया’ – प्रकृति के त्रिगुण (सत्त्व, रज और तम) को वैष्णवी माया भी कहते है।
अन्य मनुष्य जन्म होने के साथ ही वैष्णवी माया के वश हो, मूढ़ता को प्राप्त होते है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि मेरा जन्म अन्य मनुष्यों के समान तो हुआ है, परन्तु मैं अन्य मनुष्य के समान वैष्णवी माया के आधीन नहीं होता। मैने योग सिद्धि से अपनी प्रकृति (गुण) को अपने अधीन कर रखा है। अर्थात मेरा अन्तःकरण नियमित रहता है, जिसके कारण प्रकृति के त्रिगुण मेरे अन्तःकरण में विकार उत्पन्न नहीं करते। मैं संसार और शरीर से लिप्त नहीं होता।
जो सत्त्व, रज और तम – इन तीनों गुणों से पभावित नहीं है, वह भगवान की शुद्ध प्रकृति है। यह शुद्ध प्रकृति भगवान का स्वकीय सच्चिदानन्दघन स्वरूप है। इसी को संधिनी-शक्ति, संवित्-शक्ति और आह्लादिनी-शक्ति कहते हैं।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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