भावार्थ:
मनुष्य जन्म का जो तत्व ज्ञान है, उसको यथार्थ रूपसे जानना चाहिये। इस श्लोक में ‘तत्त्वत:’ पद से यह स्पष्ट किया गया है कि परमात्मतत्व को केवल बुद्धि के स्तर पर जाना नहीं जा सकता, अपितु इस को अनुभव ही किया जा सकता है। इस का अनुभव, योग का पालन करते हुये कर्तव्य कर्मों को करने से होता हैं।
इस श्लोक में दिव्य कर्म को यथार्थ से जानना अर्थात पालन करने का अभिप्राय है। मनुष्य के कर्मों में दिव्यता (शुद्धि) योग से आती है। कामना, ममता और आसक्ति से रहित होकर कर्तव्यों को करने से ही कार्यों में दिव्यता (शुद्धि) आती है। प्रकृति पदार्थों के साथ अपना सम्बन्ध माननेसे ही कार्यों में मलिनता आती है और वे बाँधनेवाले होते हैं।
अध्याय ३ श्लोक २२ में भगवान श्री कृष्ण कहते है कि- मैं उत्साह एवं तत्परतासे, आलस्य-रहित होकर, सावधानीपूर्वक, साङ्गोपाङ्ग कर्तव्य-कर्मोंको करता हूँ। कर्मोंका न त्याग करता हूँ, न उपेक्षा। यही भगवान के कर्मों में दिव्यता है जिसका अनुसरण करने के लिये भगवान इस श्लोक में कहते है।
मनुष्य जब प्रकृति पदार्थों को प्राप्त करने की कामना से कार्यों को करता है, तो जैसे पूर्व श्लोकों में कहा है, उसको दुःख का अनुभव होता है। जब मनुष्य के सभी कार्य केवल दूसरोंकी सेवा के लिये होते है, तब क्रिया-पदार्थ से सम्बन्ध (दुःख से) विच्छेद हो जाता है और नित्यप्राप्त परमानन्द का साक्षात् अनुभव हो जाता है।
इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण इस श्लोक में कहते है कि अलग-अलग युग में जो जिन-जिन मनुष्यों ने मनुष्य धर्म और योग का पालन करके योग सिद्ध किया है उनका जन्म दिव्य है। ऐसे दिव्य मनुष्यों ने अपने जीवन काल में जिस प्रकार जीवन आचरण किया है उसको विस्तृत एवं यथार्थ रूपसे जानना चाहिये और जान कर अनुसरण करना चाहिये। कारण कि ऐसा करने से उन दिव्य मनुष्य के समान अनुसरण करने वाला साधक देह के अन्त और पुनः जन्म को लेकर जो भय, अज्ञान है, उससे मुक्त हो जाता है। और वह (अनुसरण करने वाला साधक) भी दिव्य मनुष्य के समान परमानन्द को प्राप्त होता है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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