भावार्थ:
जङ्गम एवं स्थावर प्राणी के प्रभव का जो मूल बीज है, जिससे प्राणी की उत्त्पति होती है, उस बीज का कारण परमात्मतत्व है। बीज से अंकुर निकलता है, अंकुर वृक्ष में परिवर्तित होता है और बीज स्वयं मिट जाता है। पुनः वृक्ष से बीज पैदा होता है और यह चक्र चलता रहता है। यही क्रिया चक्र, सभी प्राणियों में होता है। इस चक्र का मूल तत्व बीज को कहा जा सकता है और इस चक्र के होने का कारण परमात्मतत्व है। इसलिये अध्याय ७ श्लोक ६ में प्रभव तथा प्रलय का कारण परमात्मतत्व कहा गया है।
बुद्धि में जो विवेक रूपी शक्ति है उस का कारण परमात्मतत्व है। दैवी-सम्पत्ति रूपी गुण को प्राप्त करने पर तेजस्वी में जो तेज उत्त्पन्न होता है उस तेज का कारण परमात्मतत्व है। तेजस्वी के इस तेज के कारण ही अन्य मनुष्य उस तेजस्वी का अनुसरण करते है और उनके सम्पर्क मात्र से ही मनुष्य स्वयं में अनेक प्रकार के परिवर्तन अनुभव करता है।
श्लोक के सन्दर्भ मे:
माता के गर्भ में रज-वीर्य के अंश से बीज रूप धारण करता है और उससे शरीर बनता है। रज-वीर्य और शिशु का शरीर अन्न ग्रहण करने से होता है और अन्न मिट्टीसे पैदा होता है। अतः ये शरीर मिट्टीसे पैदा होता हैं और अन्तमें मिट्टीमें ही लीन हो जाता हैं। इस प्रकार पहले और अंत में मनुष्य शरीर मिट्टी है, केवल बीच में शरीर रूप दीखता है, परन्तु विचार करने से मूल में यह मिट्टी ही है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
Read MoreTo give feedback write to info@standupbharat.in
Copyright © standupbharat 2024 | Copyright © Bhagavad Geeta – Jan Kalyan Stotr 2024