श्रीमद भगवद गीता : ११

बलवालों में कामना-आसक्ति रहित बल; मनुषयों में धर्मयुक्त काम मैं हूँ।

 

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।

धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।७-११।।

 

हे भरत श्रेष्ठ! बलवालोंमें कामना तथा आसक्ति से रहित बल मैं हूँ। मनुषयोंमें धर्मयुक्त काम मैं हूँ। ।।७-११।।

भावार्थ:

किसी भी कार्य को करने के लिए मनुष्य शरीर-बुद्धि में सामर्थ्य, शक्ति और उत्साह का होना बल है।  इस श्लोक मे भगवान श्री कृष्ण वर्णन करते है कि मनुष्य के बल का कारण परमात्मतत्व है। परन्तु भगवान श्री कृष्ण चेतावनी देते है कि मनुष्य को इस बल का प्रयोग कामना और आसक्ति के वशीभूत होकर नहीं करना चाहिये।

सामान्यत मनुष्य में जब कामना व आसक्ति होती है तब वह अथक परिश्रम करते हुये दिखाई देता है और अपनी इच्छित वस्तु को पाने के लिये सम्पूर्ण शक्ति लगा देता है। परन्तु जब मनुष्य समाज हित के लिये कार्य करता है और उस कार्य में शारीरिक और मानसिक कष्ट होता है। अतः जो कार्य स्वयं के लिये नहीं है उसको करने में एक विशष प्रकार का शुद्ध, निर्मल उत्साह होना आवयशक है। वह उत्साह रूपी बल ही परमात्मतत्व का स्वरूप यहा कहा गया है।

पुनः धर्म युक्त कार्य करने के लिये भी एक विशेष प्रकार की कामना होने का कारण परमात्मतत्व है।  इस से यह भी ज्ञात होता है कि मनुष्य को धर्म युक्त कार्य ही करने चाहिये।

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