श्रीमद भगवद गीता : १४

त्रिगुण माया से मोहित हुआ मनुष्य, केवल परमात्मा के शरण जा कार मुक्त हो सकता है।

 

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।७-१४।।

 

क्योंकि मेरी यह गुणमयी दैवी माया बड़ी दुरत्यय है अर्थात् इससे पार पाना बड़ा कठिन है। जो केवल मेरे ही शरण होते हैं, वे इस माया को तर जाते हैं। ।।७-१४।।

भावार्थ:

प्रकृति के प्राणी एवं पदार्थ, के गुणों के कारण हो रही क्रिया, जो स्वतः ही हो रही है – वह दैवी माया है; योग माया है।

प्रकृति के प्राणी एवं पदार्थ, सभी में गुण है जिसके कारण समस्त प्रकृति कार्य रत है – उसमें अनेक प्रकार की क्रिया हो रही है। मनुष्य शरीर (इन्द्रियां, मन और बुद्धि) में भी अनेक प्रकार की क्रिया हो रही है जो उनके गुण के कारण है।

बुद्धि, शरीर से हो रही क्रिया का द्रष्टा है। बुद्धि ही शरीर से हो रही क्रिया, एवं प्रकृति में हो रही क्रिया को अनुभव करता है। बुद्धि का प्रकाशक चेतन तत्व है। परन्तु बुद्धि शरीर से सम्बन्ध मान कर मूढ़ता वश इन अनुभवों को स्वयं का अनुभव मान लेता है। बुद्धि के लिये इस मूढ़ता से पार पाना अत्यन्त कठिन है। कारण की बुद्धि इन अनुभवों को स्वयं से अलग हो कर देख ही नहीं पाती। गुणों के कारण अनुभव को स्वयं से उत्त्पन्न अनुभव मान लेना और क्रिया को स्वयं की क्रिया मान लेना अहंकार है।

अतः भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं स्वीकार करते हैं कि अहंकार से युक्त मनुष्य के लिये माया से उत्पन्न मोह को पार कर पाना दुस्तर (कठिन) है। कारण कि जब तक मनुष्य अपने को कभी सुखी और कभी दुःखी, कभी समझदार और कभी बेसमझ, कभी निर्बल और कभी बलवान् आदि मानकर कामना पूर्ति, भोग और आसक्ति में तल्लीन रहेगा तब तक मोहित रहेगा।

आगे भगवान् श्रीकृष्ण कहते है कि मोह को पार कर पाना दुस्तर (कठिन) तभी तक है जब तक मनुष्य परमात्मा के शरण नहीं होता।

परमात्मा के शरण होने का अर्थ है की मनुष्य के सभी कार्य स्वयं के लिये न हो कर प्रकृति-समाज के सेवा हेतु हो और सभी कार्यों का करता स्वयं को न मान कर परमात्मा को माने। यह विचार रखे की सभी क्रियाओं, प्राप्त प्रकृति पदार्थ, परिस्थिति का कारण परमात्मतत्व है और अहंकार रूपी ‘मैं’ केवल द्रष्टा मात्र हूँ।

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