श्रीमद भगवद गीता : १७

समता युक्त ज्ञानी भक्त को संसार प्रिय होता है और परमत्मा को ज्ञानी भक्त।

 

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्ितर्विशिष्यते।

प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ।।७-१७।।

 

 

उन चार भक्तोंमें मेरेमें निरन्तर लगा हुआ, नित्ययुक्त ज्ञानी श्रेष्ठ है; क्योंकि ज्ञानी भक्तको मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह भी मेरेको अत्यन्त प्रिय है। ।।७-१७।।

 

भावार्थ:

पूर्व श्लोक में कहें गये ज्ञानियों (अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी) में वह ज्ञानी श्रेष्ठ  भक्त है, जो नित्ययुक्त है। अर्थात् वह सदा-सर्वदा केवल परमात्मा के शरण हो कर मनुष्य धर्म का पालन करता है और उन सब कार्यों का और प्राप्त फल का श्रय और कारण परमात्मा को ही मानता है। मैं कर्ता हूँ,  इस प्रकार का अहंकार नहीं रखता। उसका कोई दूसरा प्रयोजन जीवन में नहीं होता।

अध्याय १५ श्लोक १९ में भी भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि जो सर्वज्ञ (ज्ञानी) है, वह सब प्रकार से मेरा ही भजन करता है।

यहाँ नित्ययुक्त का तात्पर्य समता युक्त से तो है ही। साथ ही परमात्मा में निरन्तर प्रियता होने से भी है।

क्योंकि ज्ञानी भक्त में परमात्मा के लिये अत्यन्त प्रेम होता है,  इसलिये उसमें अपने लिये किञ्चिन्मात्र भी कामना नहीं होते। उसके कार्य स्वयं के लिये न होकर समाज कल्याण के लिये ही होते हैं। उसको यह ज्ञात होता है कि प्रकृति में हो रही समस्त क्रियाओं का कारण परमात्मतत्व है।

क्योंकि ज्ञानी भक्त के सभी कार्य समाज कल्याण के लिये ही होते हैं, इसलिये वह संसार के लिये प्रिय तो होगा ही। और जो संसार के लिये प्रिय है वह परात्मा के लिये भी प्रिय होगा।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

शरीर मेरा है, ऐसा भाव होना शरीर के प्रति ममता है। किसी के प्रति ममता होने ही प्रिय होने का भाव होता है। जो प्राणी-पदार्थ प्रिय होता है, मनुष्य उसको सुख पहुंचाने के लिये कार्य करता है। यह भक्ति है। अन्य के प्रति प्रियता का भाव स्वयं के शरीर से अधीक होने पर मनुष्य अन्य को सुख पहुंचाने के लिये स्वयं के शरीर के कष्ट को महत्व नहीं देता। ऐसा हो जाना भक्ति की परिकाष्ठा है।

अतः मनुष्य जब परमात्मा से प्रियता करता है और परमात्मा को संसार के प्राणी-पदार्थ में देखता है। तब उनको सुख पहुंचाने के लिये उसके सभी कार्य परमात्मा के लिये होते है। स्वयं के लिये नहीं। ऐसा होना ही योग है, भक्ति है।

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