भावार्थ:
जो मनुष्य योग आरूढ़ नहीं होते और कामना और भोग में ही लिप्त रहने है, उनका ज्ञान हर जाता है। उनमे विवेक आच्छादित हो जाता है।
विवेक ढक जानेसे वे अपनी प्रकृति (स्वभाव) से नियन्त्रित रहते हैं। प्रकृति के परवश होने पर मनुष्य कामना पूर्ति के अनेक उपायोंको और विधियों (नियमों-) को धारण करके देवताओं की शरण लेते हैं।
देवताओं की शरण जाने का अर्थ है, पूजा, अर्चना करना, देवताओं की प्रसन्नता के लिये अनेक प्रकार के उपाय एवं नियमों का पालन करना। यह सब वह कामना पूर्ति के लिये करते है।
पूर्व श्लोक में वर्णित परमात्मा के शरण होना (पूर्व श्लोक) और देवताओं की शरण होना में अन्तर है। देवताओं की शरण होना भौतिक कामना पूर्ति के लिये है। अतः इस में वह सब भौतिक कार्य किये जाते है, जिससे भौतिक वस्तु की प्राप्ति हो।
परन्तु परमात्मा के शरण होने पर भौतिक कामना का त्याग है और कार्य समाज कल्याण के लिये किये जाते है। अध्याय ५ श्लोक २ में योग के लिये कर्म करना कर्म सन्यास से श्रेष्ठ बताया है। अध्याय २ श्लोक ५० में योग युक्त होने के लिये कर्तव्य करना कुशल कार्य है, ऐसा कहा है।
अतः जो साधक परमात्मा के शरण होता है, केवल परमात्मा की सत्ता को अनुभव करता है और परमात्मा की सृष्टि (यज्ञ) के लिये कार्य करता है।
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