श्रीमद भगवद गीता : २३

देवता की भक्ति से सुख-दुःख की प्राप्ति होती है और परमात्मा से परमानन्द की।

 

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।

देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि।।७-२३।।

 

परन्तु उन अल्प बुद्धि मनुष्यों का वह फल नाशवान् होता है। देवताओं का पूजन करनेवाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मेरे (परमानन्द) को ही प्राप्त होते हैं। ।।७-२३।।

 

भावार्थ:

कामना पूर्ति के लिये जो देवताओं की शरण जाते है, उनको फल तो मिलता है, परन्तु वह अन्तवाला (नाशवान्) फल होता है। फल नाशवान होने के कारण अन्तः करण में सुख-दुःख बना रहता है। कामना पूर्ति होने पर और अधिक कामना उत्पन्न होती है, और मनुष्य सुख-दुःख के बन्धन में बँधा रहेता है।

इस प्रकार के मनुष्यों को इस श्लोक में अल्प बुद्धि वाला कहा गया है। मनुष्य में अहंता बहुत बड़ी वृति है। इसलिये अहंता का त्याग करके भक्ति करना बहुत बड़ी साधना है। इसलिये ऐसे भक्त को अध्याय ७ श्लोक १८ में उदार मन वाला कहा गया है। यह अल्प बुद्धि ही है, जो मनुष्य देवता की भक्ति नाशवान् फल की प्राप्ति के लिये करता जो सुख-दुःख देने वाले है।

इस के विपरीत जब मनुष्य परमात्मा की भक्ति करता है, तब उसको परम् आंनद की प्राप्ति होती है। इसलिये परमात्मा की भक्ति करने वाले को अध्याय ७ श्लोक १८ में ज्ञानी भक्त कहा है।

यहाँ देवता की भक्ति से तात्पर्य उस भक्ति से है जो कामना पूर्ति के लिये की जाती है। और जब भक्ति समता प्राप्ति के लिये है तब वह परमात्मा की भक्ति है।

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